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________________ ४४ पाहुड - दोहा 1 में, हमें अबतक पता नही है । इसलिये मेरा अनुमान है कि कवि अपने काव्य को ही देसी भासा में रचित निर्दिष्ट करते हैं । यह ग्रंथ प्रारम्भ ही हुआ है, प्रवाह में नही पहुंचा, इसी से कदाचित उसे रामकथासरित् का तट ही कहा है । पद्मदेवकृत 'पासणाहचरिउ ' दशवीं शताब्दि का बना हुआ है। उसके आदि में कवि कहते हैं वायरणु देसिसद्दत्यगाढ छंदालंकारविसाल पोढ 1 ससमय पर समय-वियारसहिय अवसवाय दूरेण रक्षिय ॥ जह एवमाइ बहुलक्खणेहिं st fast nor farक्खणेहिं । ता इयरकईयणसं किए हिं पयडिन्न्रउ कि अप्पड ण तेहिं ॥ यह उल्लेख एक दृष्टि से कुछ स्पष्ट है । कवि कहते है कि यद्यपि व्याकरण और देशीशब्द व अर्थ से गाढ, आदि लक्षणों युक्त काव्य दूसरे कवियों ने बनाये हैं, तो क्या उनकी शंका से दूसरे कोई अपने भाव प्रगट न करें ! कवि का तात्पर्य है कि देशी शब्दों में अनेक काव्य उच्चकोटि के वन चुके हैं तथापि मैं भी देशी शब्दों में एक काव्य बनाने का साहस करता हूं । इस प्रकार देव भी अपने काव्य की भाषा को देशी कहते हैं ।
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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