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________________ ૪૬ पाहुड-दोहा . अर्थात् वह अनादिकालागत प्राकृत का एक रूप हैं, तथा उसमें व्याकरण के नियमों से व्युत्पन्न भी शब्द पाये जाते हैं । यह बात विचारणीय है कि इस भाषा में रचना करने वाले कवियों ने अपनी भाषा को अपभ्रंश का नाम कहीं नही दिया । अपभ्रंश शब्द का, भाषा के सम्बन्ध में, एक भी उल्लेख इस भाषा के काव्यों में अभीतक मेरे देखने में नहीं आया। ऊपर दिये हुए अरणों के अतिरिक्त और अनेक उल्लेख मेरे पास संकलित हैं जिनमें कवियों ने कहीं अपने काव्य को ' पद्घडिया बंध' कहा है और कहीं ' प्राकृत रचना ' | मेरा मत है कि भाषा के सम्बंध में इस अभ्रंश शब्द से उक्त भाषा के लेखकों को अरुचि थी । उस शब्द में भाषा की हीनता और बुराई का भाव अंकित है और इसलिये उस भाषा के प्रेमियों को उससे असहयोग करना स्वाभाविक था । ययार्यतः यह शब्द पातञ्जलि आदि संस्कृत व्याकरण के महारथियों ने घृणा कि दृष्टि से ही दिया था. क्योंकि उसे संकृत का विकाश नही विकार समझते थे । प्राकृत वैयाकरणों ने उस शब्द को यो स्वीकार कर दिया कि उन्हें वह उस गया का क्षण घातक जंचा, और संस्कृत से विकार रूप में उस नावा का स्वरूप समझाने में उन्हे सुविधा होगई । मेरा मत हैं कि इसी सुविधा के विचार से हेमचन्द्र जैसे वैयाकरण ने भी प्राकृत को' प्रकृतिः संस्कृतं तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतन् ' ऐसी क्युसिंग युवति दे डाली है ।
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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