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________________ देशीभाषा और अपभ्रंश जे लक्खणे ण सिद्धा ण पसिद्धा सक्कयाहिह । णेसु । गय गउपलक्खणासत्तिसंभवा ते इह णिबद्धा ॥ सविसेसपसिद्धीइ भण्णमाणा अणतया हुँति । तम्हा अणाइ पाइय-पयट्ट - भासा - विसेसओ देसी ॥ ४१ अर्थात् " मैने इस कोश में उन्ही शब्दों को एकत्र किया है जो ' लक्षण ' में सिद्ध नही होते, न संस्कृताभिधानकोशों में प्रसिद्ध हैं, और न गौडी लक्षणा की शक्ति से सिद्ध होते हैं । खास खास देशों में बोली जाने वाली भाषायें अनन्त हैं, इसलिये यहां देशी शब्द का तात्पर्य उस विशेष भाषा से है जो अनादि काल से चली आई हुई प्राकृत से उत्पन्न हुई है । , 'लक्षण' शब्द की टीका में कहा गया है-" लक्षणे शब्दशास्त्रे सिद्धहेमचन्द्रनाम्नि ये न सिद्धाः प्रकृतिप्रत्ययादिविभागेन न निष्पन्नास्तेऽत्र निबद्धाः । ये तु वज्जर- पज्जर- उप्फाल पिसुण-संघ बोल चव - जंप-सीस-साहादयः कथ्यादीनामादेशत्वेन साधिताः तेऽन्यैर्देशीयेषु परिगृहीता अप्यस्माभिर्न निबद्धाः । " इस नियम को कर्ता ने सर्वत्र निवाहने का प्रयत्न किया है । इस कोश की टीका में जगह जगह ऐसे स्थल मिलते हैं, जहां कर्ता ने कहा है कि अमुक शब्द अन्य कोशकारों ने अपने देशी कोश में लिया है किन्तु वह हमारे व्याकरण के अमुक सूत्र से सिद्ध होता है इससे हमने उसे यहाँ नही दिया । ये उल्लेख प्रायः उनकी प्राकृत व्याकरण के चौथे पाद के ही हैं जिस पाद में ही उन्होने अपभ्रंश भाषा का निरूपण
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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