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________________ ४० पाहुड-दोहा उपर्युक्त समस्त उल्लेख का सार यही है कि अपभ्रंश को ही देशभापा और देशभापा को अपभ्रंश नाम से साहित्याचार्य • समझते और कहते आये हैं। ___चंड, हेमचंद्र आदि प्राकृत के वैयाकरणों ने इस भाषा को अपभ्रंश ही कहा है और उसे अर्धमागधी, शौरसेनी व महाराष्ट्री के समान प्राकृत का एक अंग माना है । व्याकरण में उन्होंने संस्कृत के शब्दों में जो विकार होकर इस भाषा के शब्द बनते हैं, उनके नियम तथा कारकरूपों, क्रियारूपों, धातु-आदेशों व अन्य शब्दरचना के नियम दिये हैं। इन नियमों, तथा उनपर दिये हुए उदाहरणों, से सिद्ध है कि हमारे प्रस्तुत ग्रंथ तथा उसी समान पुष्पदन्तादि के ग्रंथों की भाषा वही अपभ्रंश है। जैसा हम ऊपर वता आये हैं, हमारे प्रस्तुत ग्रंथ के ही चार दोहे हेमचन्द्र के उदाहरणों में पाये जाते हैं। हेमचन्द्र ने एक कोश भी रचा है जो देशीनाममाला' के नाम से प्रसिद्ध है, किन्तु जिसका नाम मूल ग्रंथ में देशी-शब्द-संग्रह पाया जाता है | इस ग्रंथ में कर्ता ने कोई चार हजार देशी शब्दों के अर्थ दिये हैं। देशी से कर्ता का क्या तात्पर्य है यह उन्होने आदि में ही दो गाथाओं द्वारा स्पष्ट कर दिया * देसी नाममाला, कलकत्ता यूनीवर्सिटी १९३१, भूमिका पृ. १४,
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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