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________________ पाहुड-दोहा के प्राचीन महावरे दिखाई देते हैं । इससे अनुमान होता है कि ग्रंथकार राजपुताना प्रान्त के थे। ग्रंथकार का इससे अधिक परिचय देने के लिये कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है । ७. पाहुउदोहा का रचनाकाल प्रस्तुत ग्रंथ कत्र रचा गया, इस प्रश्न का निश्चित उत्तर देना तो कठिन है, किन्तु हम ऊपर जो इस ग्रंथ का अन्य ग्रंथों से सम्बन्ध बतला आये हैं, तथा इसमें मापा का जो रूप पाया जाता है, उस पर से उसके रचनाकाल का स्थूल रूप से अनुमान करना अशक्य नहीं है। उपलब्ध दो हस्तलिखित प्रतियों में से एक संवत् १७९४ अर्थात् ईस्वी १७३७ की लिखी हुई है। अतएव ग्रंथ इससे पूर्व बन चुका था यह निश्चित है। इस ग्रंथ के जो तीन दोहे श्रुतसागर की पट्याहुइ टीका में उद्धृत पाये जाते हैं उससे सिद्ध होता है कि यह ग्रंथ श्रुतसागर से पूर्व बन चुका था । श्रुतसागरजी गुर्जरदेश के पट्टाधीश लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य थे, और लक्ष्मीचन्द्रजी का एक उल्लेख संवनू १५८२ का पाया जाता है। श्रुतसागरजी इसी समय के लगभग हुए होंगे । अतः यह माना जा सकता है कि हमारा ग्रंथ उक्त संवत् अर्थात् ईस्त्री १५२५ के लगभग वर्तमान था । इसी प्रकार हेमचन्द्राचार्य के व्याकरण में इस ग्रंथ के + माणिकचन्द्र ग्रंथमाला २१, भूमिका,
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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