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________________ अनुवाद ६३ २०४ जब मन का व्यापार टूट गया, तथा राग-रोप का सद्भाव भग्न हो गया और आत्मा परमपद पर परिस्थित हो गया, तभी निर्वाण है । २०५ हे जीव, तूं आत्म-स्वभाव को छोड़कर विषयों का सेवन करता है, इससे, हे जोगी ! अन्य दुर्गति में जायगा । यह ऐसा ही व्यवसाय है । २०६ जब न मंत्र, न तंत्र, न ध्येय, न धारण, न उच्चास का कारण किया जाता है तब मुनि परम सुख से सोता है । यह गड़बड़ किसी को नहीं रुचती । २०७ बहुतसे विशेष उपवास करके यह संवर होता है । और बहुत विस्तार से पूछने से क्या लाभ ? किसी से कुछ मत पूछ । २०८ तप कर जिन द्वारा भाषित, सुप्रसिद्ध, दशविध धर्म कर । हे जीव ! यही कर्मों की निर्जरा है । मैने तुझे स्पष्ट बता दिया । २०९ हे जीव ! जिनवर द्वारा भाषित, दशविध, अहिंसाचार धर्म की एक मन से भावना कर जिससे तूं संसार को तोड़ दे |
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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