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________________ ५८ पाहुड-दोहा बद्ध तिहुवेणु परिभमइ मुक्काउ पड विण देइ । दिक्षु ण जोइय करहुलउ विवरेरउ पउ देइ ॥ १९० ॥ संतु ण दीसइ तत्तु ण बि संसारहिं भमंतु । खंधावारिउ जिउ भमइ अवराडइहिं रहंतु ॥ १९१॥ उन्यस बसिया जो करइ वसिया करइ जु सुण्णु । बलि किजउ तमु जोइयहि जासु ण पाउ ण पुण्णु ॥१९२॥ कम्मु पुराइंउ जो खबइ अहिणव पेसु ण देइ । अणुदिणु झायइ देउ जिणु सो परमप्पड होई ॥१९३॥ विसया सेवइ जो वि पर बहुला पाउ करेइ । गच्छइ गरयहं पाहुणउ कम्मु सहाउँ लएइ ॥१९४।। कुहिएण परिएण य छिदेण य खारमुत्तगंधेण । संताविञ्जइ लोगो जह सुणहो चम्मखंडेण ॥१९५।। देखताहं वि मूढ वह रमियई सुक्खु ण होइ । अम्मिए मुत्तहं छिडे लहु तो वि ण विणडइ कोई ॥१९६।। क.तियणु. २ क.अ.३८. बंधाया': क. संघाचा. ४६.वि. ५ क, पुराय३.६ द. जोइ. ७ क. पर. ८ क, सहाइ. ५६. छ. १० क. को वि.
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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