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________________ अनुवाद ५९ १९० वंधा हुआ त्रिभुवन में परिभ्रमण करता है और मुक्त हुआ पांव भी नही देता । हे जोगी ! करभ को देखो न विपरीत पांव देता है | • १९१ संसार में भ्रमण करते हुए न संत दिखता और न तत्व | किन्तु जीव स्कंधावार ( फौज ) सहित दूसरों की रक्षा करता हुआ भ्रमता है । ( अर्थात् संसारी जीव तत्व की खोज तो नहीं करता, इन्द्रिय और मन की फौज सहित पर की रक्षा में लगा फिरता है | ) १९२ जो उजाड़ को वासित और वासित को उजाड़ करता है, हे जोगी ! उसकी बलिहारी है, जिसके पाप है न पुण्य । १९३ जो पुराने कर्म को खपाता है और नयाँ को प्रवेश नही देता तथा अनुदिन जिनदेव का ध्यान करता है वह परमात्मा हो जाता है । १९४ और दूसरा, जो विपयों का सेवन तथा बहुत से पाप करता है, वह कर्म की सहायता लेकर नरक का पाहुना वन कर जाता है । .१९५ कुत्सित, क्षार सूत्र की गन्ध से पूरित छिद्र लोक को संताप पहुंचाता है, जैसे कुत्ते को धर्म - खण्ड | १९६ हे मूर्ख वेडे ! देखने वालों को या रमण से सुख नही होता । अहो ! छोटासा मूत्र का छिद्र है तो भी उसे कोई नही छोड़ता ।
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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