SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुवाद ५७ १८३ जिससे बुद्धि तड़ से टूट जाय और मन भी अस्त हो जाय, हे स्वामी, ऐसा उपदेश कहिये । अन्य देवों से क्या ? १८४ न सकलीकरण जाना, न पानी और पर्ण का भेद, और न आत्मा का और पर का मेल । क्षुद्र देव को पूजता है । · १८५ न आत्मा और पर का मेल हुआ और न आवागमन भंग हुआ | तुप कृटते काल गया और एक तंदुल हाथ न लगा । १८६ देहरूपी देवालय में शिव निवास करता है, तू देवालय में ढूँढता है । मेरे मन में यह हँसी आती है कि हूँ. सिद्ध से भीख मँगवाता है । १८७ वन में, देवालय में, तीर्थों में भ्रमण किया और आकाश मैं भी देखा । अहो, इस भ्रमण में भेड़िये और पशु लोगों से भेंट हुई। . १८८ दोनों मार्गों को छोड़कर अलक्षण ( अभागी) बीच में जाता है। उसे दोनों का कुछ फल नही मिलता जिससे वह लक्ष्य को पा जावे । • १८९ हे जोगी ! जोग की गति विपम है । मन रोका नही जाता । इन्द्रिय-विषयों के जो सुख हैं उन्ही पर बलि बलि जाता है ! बलिदान होता है ) ।
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy