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________________ 1 1 नेमिनाथमहाकाव्यम् ] द्वादश सर्ग [ १५३ इन्द्र, शरीर से सुन्दर, यथार्थ ज्ञान रूपी कमल के लिये तेजस्वी सूर्य, सुखमय एव श्रेयस्कर जिन की पूजा करो ॥४१॥ हम कपट राशि-रूपी वृक्षो को उखाडने वाले पवन, कलहो को दूर करने वाले, आनन्द-रूपी तारो के चन्द्रमा, मंगल तथा सुख के दाता, इस महान् जिन की पूजा करते हैं ||४२|| तब भक्ति और प्रेम के वशीभूत हृदय से इस प्रकार स्तुति करके श्रीकृष्ण के हट जाने पर जिनेन्द्र नेमिनाथ ने समस्त सशयो को वाली अमृत तुल्य घर्मदेशना प्रारम्भ की ||४३|| दूर करने जैसे सूर्य के बिना दिन नही होता वैसे ही पुण्य के बिना सुख नही मिलता । इमलिये सुख चाहने वाले बुद्धिमान् को सदैव आदरपूर्वक पुण्य अवश्य करना चाहिये ॥ ४४ ॥ पुण्य से लक्ष्मी सदैव हैं, पुण्य से सभी कार्य सिद्ध होता है ॥४५॥ वश में रहती है, पुण्य से पृथ्वी पर यश फैलता होते हैं, पुण्य से निश्चय ही परम पद प्राप्त ससार मे लोगो को व्यावि, विपत्ति, प्रियजन से वियोग, दरिद्रता धन का नाश, शत्रु से पराजय, दूमरे के घर मे चाकरी, मानसिक व्यथाएँ सदा पाप के उदय से होती हैं ॥४६॥ सम्वन्धी और मित्र नष्ट हो जाते हैं, शरीर और धन भी नष्ट हो जाता हैं, केवल इहलोक और परलोक मे सचित पुण्य नष्ट नही होता ॥४७॥ नेमिनाथ की इस धर्मदेशना को सुनकर भवमागर के पार जाने के इच्छुक कुछ लोगो ने दीक्षा ग्रहण की और कुछ ने प्रसन्न होकर श्रावक धर्म स्वीकार किया ॥४८॥ तब उग्रसेन की पुत्री राजीमती ने उठकर और जिनेश्वर को प्रणाम करके यह कहा -- वे जगत्प्रभु ! प्रसन्न होओ, मुझे करने योग्य काम बताओ और मुझे सदा के लिये अपनी सहचरी बनाओ ||४६ ॥ घूँ
SR No.010429
Book TitleNeminath Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiratnasuri, Satyavrat
PublisherAgarchand Nahta
Publication Year1975
Total Pages245
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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