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________________ द्वादश सर्ग [ नेमिनाथमहाकाव्यम् हे पुण्यशाली जिनेन्द्र | रोम, दुर्दशा आदि तभी तक हैं, जब तक कोप की वृद्धि को खण्डित करने वाले, भक्तो के रक्षक और पुण्य तथा सुख के वर्धक आपके दर्शन नहीं होते ॥३३॥ हे दयालु | पहले एक-साथ मेरे रोग और शतु मोह को नष्ट करो, उसके बाद मुझे यथार्थ ज्ञान-महित अमीम लक्ष्मी से युक्त वह । परम ) पद प्रदान करो ॥३४॥ हे जिन | उत्तम माभूपणो से शोभित, अनुपम भक्ति-रस मे लीन कोकिलाओ के ममान मधुरभापिणी अप्सराओ ने, देवताओ के नाथ कुलपर्वतो पर बैठकर इस प्रकार आपकी कीत्ति का गान किया जैसे मुनि परम अक्षर का जाप करता है ।।३।। परम सुन्दर जिनराज ! जो मनुष्य आपकी स्तुति करता है, वह ससार मे लक्ष्मी की निधि बन कर अतीद शोभा पाता है और सरस्वती उसे मनोहर प्रतिमा से अत्युत्तम बना देती है ॥३६॥ मुक्तावस्था को प्राप्त नेमिजिन इम अपरिमित लक्ष्मी और सत्यता का वार-बार विस्तार करें। इसके पश्चात् यम को पीडित करने वाले वे पूज्य दरिद्रता को पूर्णतया दूर करें ॥३७॥ हे ममृद्धि के दाता ! हे पूज्यतम | पहले आप मेरे विस्तृत दम्भ का नाश करो, फिर हे पूज्य | मनुजेश । परमज्ञानी 1 हे सयमी । मेरी रक्षा करो ॥३८॥ - हे जगद्गुरु | रागरहित आपने समार मे आकर उसकी रक्षा करते हुए, मोतियो की माला से शोभित सुन्दर पत्नी राजीमती को छोड़ दिया, यह दुख की बात है । वह मनोहर विलासो, क्रीडाओ तथा केलियो के लिये नाग है, लोक और अलोक में निकलक है और उसकी अलके कोकिलामो और भ्रमरो के ममूह के समान हैं ॥४०॥ गम्भीर रोगो को दूर करने वाले, मसार में शत्रु-स्पी पर्वत के लिये
SR No.010429
Book TitleNeminath Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiratnasuri, Satyavrat
PublisherAgarchand Nahta
Publication Year1975
Total Pages245
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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