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________________ १५४ ] द्वादश सगं [ नेमिनाथमहाकाव्यम् तदनन्तर दया से पसीजे हुए हृदय वाले जिनेन्द्र ने उसे चरित्र के रथ पर बैठाकर मोक्ष रूपी उस निर्मल नगर मे भेज दिया, जहाँ स्वयं उन्हें भी जाना अभीष्ट था ॥५०॥ प्रभु भी असंख्य भव्य जनो को भवसागर से पार लगा कर और देवो द्वारा सेवित तीर्थंकर की समृद्धि को भोग कर, ममस्त कर्मों के क्षीण होने पर, मानो अपनी पहले की प्रिया को मिलने की इच्छा से तुरन्त परम पद को चले गये ॥ ५१ ॥ वहाँ तीनो लोको के स्वाभी नेमिप्रभु ने, वह अनश्वर, अतुल तथा शाश्वत आनन्दरूप सुख मे मनुष्यो तथा देवताओ का राशिभूत सारा सुख भी समर्थ नही ॥ ५२ ॥ शरीर आदि से मुक्त होकर, भोगा, जिसकी तुलना करने श्वेताम्बर कीर्त्तिराज ने काव्य-प्रणयन के अभ्यास के लिये इस काव्य की रचना की है, जो श्री नेमि जिनेश्वर के चरित्र से पवित्र है ॥५३॥
SR No.010429
Book TitleNeminath Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiratnasuri, Satyavrat
PublisherAgarchand Nahta
Publication Year1975
Total Pages245
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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