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________________ नेमिनाथमहाकाव्यम् ] द्वादश सर्ग [ १५१ इसके बाद केशव ने हाथ जोडकर भमवान् की स्तुति करना प्रारम्भ किया, जिनके चरण-कमल, प्रणाम करते हुए देवराज इन्द्र के मुकुट के अग्रभाग मे लगे स्थूल रत्नो की रगड मे चमकीले बन गये थे ।।२।। भगवन् । आपके चन्द्रतुल्य मुख को देखने से मेरी आखे आज पहली वार सार्थक हुई हैं, और हे जगत्प्रभु । यह भवसागर मेरे लिये चुल्लू मात्र बन गया है ॥२६॥ भगवान् । शान्त दृष्टि से अमृत को वर्षा-सी करते हुए, करुणा के मागर और ज्ञान के भण्डार आपको देखकर यह जनार्दन अत्यधिक मानन्द प्राप्त कर रहा है ॥२७॥ हे जिनेन्द्र ! लोग जो यह कहते हैं कि यह ससार आसानी से नारायण के उदर में समा जाता है, हे देव । आपके दर्शन से उत्पन्न असीम हर्ण ने उसे मिथ्या बना दिया है ।।२८।। हे प्रभु ! ससार कहता है कि तीर्थकर की सभा मे सब वैरी अपना वैर छोड़ देते हैं, किन्तु प्राणी आपके सामने ही आन्तरिक शत्रुओ को (क्रोध, लोभ, मोह आदि को) मार रहे हैं, यह महान् आश्चर्य है ॥२६॥ भगवान् । आपके पीछे खडा नवीन कोपलो से युक्त यह सरस चैत्यवृक्ष ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रभु के दान से पराजित कल्पवृक्ष, रूप बदल फर, यहाँ आपकी सेवा करने के लिये उद्यत हो ॥३०॥ नाथ | पुष्ट स्तनो वाली देवागनाएं भी, जिन्होंने शरीर पर उज्ज्वल हार पहन रखे थे, जिनके मुख की कान्ति अत्यधिक दीप्त थी, अगविक्षेप सुन्दर थे और जिनकी कान्ति नाचने से बढ गयी थी, तुम्हारे मन मे विकार पैदा नही कर सकी ॥३॥ हे प्रभु ! भले ही मामान्यत. भी करोड देवता सदैव आपके पाम रहे, किन्तु अनुपम सद्बुद्धि-सहित लक्ष्मी उनी को जन्मपर्यन्त प्राप्त होती, है जो आपकी सेवा करता है ॥३२॥
SR No.010429
Book TitleNeminath Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiratnasuri, Satyavrat
PublisherAgarchand Nahta
Publication Year1975
Total Pages245
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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