SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४ ] पंचम सर्ग [ नेमिनाथमहाकाव्यम् जहाँ अगुरु के विशाल वृक्षों मे सुगन्वित पृथ्वी वस्तुत. वमुधा ( धनसम्पन्न ) है | और जहाँ उज्जवल मणियों के हार पहने काम पीडित देवागनाएँ केवल रति-क्रीडा की इच्छा से आती हैं ॥५१॥ वहाँ चमकती मणियो की प्रतिमाओ से युक्त विहार किसके मन को नही हर लेते ? वे (विहार) दीवारो मे चमकते हुए अनेक मनोरम रत्नो की किरणो से सदा प्रकाशित रहते हैं । उनके द्वारो पर स्थित मकरो से रहित जलाशयो के पानी की तरंगो से वेगवान् वायु यात्रियो के शरीर का पसीना दूर करती है । पुतलियो से युक्त तोरणो, कान्तिपूर्ण कलशो, स्वर्णदण्डो तथा कोमल ध्वजो से उत्पन्न जिनकी शोभा मन को लुभाती है ।।५२-५३।। विद्वान् तथा देवता, विविध प्रकार के श्रेष्ठ रत्नो की आभा से गहन अन्धकार को नष्ट करने वाली तथा सुन्दर वृक्षो से मनोहर इसकी चोटी का निर्भय होकर आनन्द लेते हैं || ५४ || जिसकी सोने की चोटी रूपी दीवार मे उत्पन्न शाहल और कल्पवृक्ष, दूर से देखने पर, चारो ओर इन्द्रनीलमणियों का भ्रम पैदा करते हैं ॥५५॥ वहा शुभ कथाओ पर विचार करने वाले तथा पवित्र गुणो से सम्पन्न विहरणशील चारण मुनि और परम आनन्दस्वरूप चेतना मे सलग्न योगी ध्यान मे लीन रहते हैं, अत वहाँ पाप विनष्ट हो जाता है ॥५६॥ इन्द्र इस अद्वितीय पर्वत की उच्च समतल भूमि के शृगार जिनेश्वर को अपने पाँच रूपो से भजता हुआ पाण्डक वन मे पहुँचा ॥५७॥ अन्त. पुर की स्त्रियो सहित ज्योतियो, व्यन्त रो, देवो तथा दानवो के समूह से घिरा, लज्जा से कातर आखो वाली देवागनाओ द्वारा बार-वार देखा जाता हुला पवित्र हृदय इन्द्र, तीर्थंकर के प्रति अगाव भक्ति रखता हुआ, वहीं पाण्डुकम्बल से युक्त सोने की शिला की पटिया पर उतरा ॥५८॥ DE A
SR No.010429
Book TitleNeminath Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiratnasuri, Satyavrat
PublisherAgarchand Nahta
Publication Year1975
Total Pages245
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy