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________________ द्वितीय सर्ग [ नेमिनाथ महाकाव्यम् राजन् । तुम्हारे मुन्दर भवन के द्वार पर तथा समस्त देवालयो में जयमंगल को सूचक ये सैकडो प्रभातकालीन तुरहियां वज रही हैं ||२६|| राजन् । चकवे किसी प्रकार रात विताकर अत्र अपनी प्रियाओ को पाकर उनके साथ प्रसन्नता से नाच रहे हैं ॥५७॥ ς J तोता आकाश में उड रहा है । कभी वह नाम के फलो मे छिप जाता है, भूख से पीडित होने पर चुपचाप बैठ जाता है, फिर हर्षपूर्वक अपनी प्रिया के गले लगता है ॥५८॥ हे श्र ेष्ठ नृप । नगर, सरोवर तथा तालवृक्ष पर रहने वाले, सुन्दर एव शीघ्र गति से चलने वाले हम कमलनाल खाने की इच्छा से हसियो के साथ वन मे चले गये हैं ॥५६॥ राजन् ! नाना प्रकार के पके हुए अन्न खाकर अस्पष्ट शब्द करती हुई पक्षियो की पक्तियाँ, घनवानो की कन्याओ की तरह निर्मल जल ला रही हैं ( कन्याएँ मिष्टान्न लाती हैं ) ||६०|| महाराज ! उदयाचल की चोटी पर स्थित, मूगे और टेसू की प्रभा वाला सूर्य अव पूर्व दिशा रूपी नारी के माथे पर लगे कुंकुम के तिलक के समान शोभा पा रहा है । मागधो के पूर्वोक्त मनोहारी तथा हितकारी वचन सुनकर सत्यवादी यादवराज समुद्रविजय निद्रा छोडकर टूटी मालाओ से युक्त विस्तरे से उठ गये ||६२|| I 600
SR No.010429
Book TitleNeminath Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiratnasuri, Satyavrat
PublisherAgarchand Nahta
Publication Year1975
Total Pages245
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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