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________________ तृतीय सर्ग तत्पश्चात् प्रात. कालीन कार्यों को समाप्त करके राजा, सावधान होकर मन्त्रियों के साथ, सभा-भवन मे सिंहासन पर ऐसे बैठ गया जैसे शेर पर्वत की सुन्दर चोटी पर बैठता है ॥१॥ सोने के सिंहासन पर बैठे हुए उसने, जिसके सिर के ऊपर ऊंचा छत्र गर्मी दूर कर रहा था, कल्पवृक्ष के नीचे हिमालय की शिला पर स्थित इन्द्र की शोभा को मात कर दिया ॥२॥ हिलती हुई चवरियो के वीच उसका प्रमन्न मुख इस प्रकार शोभित हुआ जैसे दो हस-शिशुओ के मध्य खिला स्वर्ण कमल ॥३॥ उसका रूप स्वभाव से ही कमनीय था, सिंहासन पर बैठने से वह और सुन्दर बन गया। इन्द्रनीलमणि अकेली ही मनोहर होती है, उसे सोने मे जडने पर तो कहना ही क्या ? ॥४॥ सामन्त राजाओ ने मणिजटित चौकी पर रखे उसके पूजनीय चरणो को अपने सिरो से, जिनसे चूडामणियां गिर रही थी, एक साथ प्रणाम किया ॥५॥ राजा ने निर्मल चन्द्रमा के समान मुख वाले अपने जिम-जिस सेवक को दृष्टि मे देखा, हर्ष रूपी लक्ष्मी ने उस-उस का ऐसे आलिंगन किया जैसे कामविह्वल कामिनी-अपने पति का ॥६॥ पान के पत्तो से लाल होठो वाली, इच्छानुगामिनी तथा शुभ्रवेशधारिणी सभा रूपी बवू ने नीति और विनय के पात्र उस राजा की, पति के रूप मे, कामना की ॥७॥ हिम के समान उज्ज्वल वस्त्रो से विभूषित तथा अथाह सेना के कारण दुईर्ष उस राजा ने, जिसका शरीर लालो और मोतियो से चमक रहा था, तब हिमालय के सौन्दर्य को धारण किया। (हिमालय की भूमि माणिक्यो
SR No.010429
Book TitleNeminath Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKirtiratnasuri, Satyavrat
PublisherAgarchand Nahta
Publication Year1975
Total Pages245
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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