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________________ ८२४ - नेमिनाथ-चरित्र स्थानकी ओर लौट रही थी । उसके साथकी अन्यान्य -साध्वियाँ वृष्टिके भयसे इधर उधर भाग गयीं, किन्तु -राजीमती धैर्यपूर्वक एक स्थानमें खड़ी हो गयी । वह उस स्थान में बहुत देरतक खड़ी रही। उसके सब वस्त्र भीग गये और शरीर शीतके कारण थर थर काँपने लगा, किन्तु फिर भी जब वर्षा बन्द न हुई, तब आश्रय ग्रहण करनेके लिये अनजानमें वह भी उसी गुफामें चली गयी, जिसमें रथनेमि पहलेहीसे छिपा था । वहाँ अन्धकारमें वह रथनेमिको न देख सकी। उसने अपने भीगे हुए -वस्त्रोंको खोलकर उन्हें सुखानेके लिये उसी गुफामें फैला दिये । उसको वस्त्र रहित देखकर रथनेमिके हृदय में दुर्वासनाका उदय हुआ । उसने काम पीड़ित हो - राजीमती से कहा :- " हे सुन्दरी ! मैंने पहले भी तुमसे प्रार्थना की थी, और अब फिर कर रहा हूँ । आओ, हमलोग एक दूसरेको गले लगायें । विधाताने मानो हमारे मिलनके ही लिये हम दोनोंको इस एकान्त स्थानमें एकत्र कर दिया है ।" राजीमती आवाज से ही रथनेमिको पहचान गयी ।
SR No.010428
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year1956
Total Pages433
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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