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________________ उन्नीसवाँ परिच्छेद ८२५. उसने तुरन्त अपने कपड़े उठाकर अपना शरीर ढक लिया । तदनन्तर उसने रथनेमिसे कहा :- "हे रथनेमि ! कुलीन पुरुषको ऐसी बातें शोभा नहीं देतीं ।" तुम सर्वज्ञ भगवन्तके लघु भ्राता और शिष्य हो । फिर ऐसी कुबुद्धि तुम्हें सूझ रही है ? मैं भी सर्वज्ञ कि शिष्या हूँ, इसलिये स्वममें भी तुम्हारी यह इच्छा पूर्ण नहीं कर सकती । साधु पुरुषको तो ऐसी इच्छा भी न करनी चाहिये, क्योंकि वह नरकमें डालनेवाली है । शास्त्रका कथन है कि चैत्य द्रव्यका नाश करने, साध्वीका सतीत्व नष्ट करने, मुनिका घात करने और जिन शासनकी उपेक्षा करनेसे प्राणी सम्यक्त्वरूपी वृक्षके मूलमें अग्नि डालता है। अगन्धक कुलमें उत्पन्न सर्प, जलती हुई अनिमें प्रवेश कर सकते हैं, किन्तु खुद वमन किया हुआ विप कदापि पान नहीं कर सकते। परन्तु हे नराधम ! तुझे धिकार है कि तू अपनी दुर्वासनाको तृप्त करनेके लिये परस्त्रीकी कामना करता है । ऐसे जीवनसे तो तेरे लिये मृत्यु ही श्रेयस्कर है। मैं राजा उग्रसेन की पुत्री और तू राजा समुद्रविजय का पुत्र है । हमें अगन्धक
SR No.010428
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year1956
Total Pages433
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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