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________________ बारहवाँ परिच्छेद धृष्टता है। स्वामीकी यह आज्ञा हमलोग कदापि नहीं मान सकते. . .... . • “समुद्रविजयका यह उत्तर सुनकर सोमको क्रोध आ गया। उसने कहा :-"स्वामीकी आज्ञा पालन करनेमें सेवकोंको भलेबुरेका विचार कदापि न करना चाहिये। हे राजन् ! जहाँ तुम्हारे छः पुत्र मारे गयें, वहाँ इन दो कुलाङ्गारों से भी गम खाइये, परन्तु इनके लिये साँपके मुंहमें पैर मत रखिये। बलवानके साथ विरोध करने पर अन्तमें नाश ही होता है। मगधेश्वरके सामने तुम किसी बिसातमें नहीं हो। यदि उनकी तुलना मदोन्मत्त हाथीसे ली जाय, तो तुम उनके सामने भेंड बकरीके बरावर भी नहीं हो। इसलिये; मैं तो तुम्हें यही सलाह दूंगा, कि राम और कृष्णको उनके पास भेज दीजिये और स्वममें भी उनसे वैरा करनेका विचार न कीजिये।" यह सुनतेही कृष्णने ऋद्ध होकर कहा है सोम! हमलोगोंने शिष्टाचारके कारण तुम्हारे स्वामीके प्रति जो आदरभाव दिखलाया, उससे क्या वह हमारा
SR No.010428
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year1956
Total Pages433
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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