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________________ ३५८ नेमिनाथ चरित्र ___ हरिमित्रने छु तसे लेकर नलके वन-प्रवास तकका सारा हाल उन्हें कह सुनाया। रानीको अत्यन्त दुःख हुआ और वे उस दुःखके कारण विलाप करने लगीं। हरिमित्र उनको उसी अवस्थामें छोड़ कर दानशालाकी ओर चला गया। उसे भूख भी बड़े जोरोंकी लगी हुई थी, इसलिये उसने सोचा कि वहींपर भोजनका भी ठिकाना हो जायगा। दानशालाका द्वार तो सबके लिये खुला ही रहता था। इसलिये हरिमित्रने वहॉपर ज्योंही भोजनकी इच्छा प्रकट की, त्योंही शुद्ध और ताजे भोजनकी थाली उसके सामने आ गयी। हरिमित्र उसके द्वारा अपनी क्षुधानि शान्त करने लगा। . ___ भोजन करते समय अतिथियोंके पास जाना और उनसे पूछ-ताछ कर उन्हें किसी और वस्तुकी आवश्यकता हो, तो वह उन्हें दिला देना, यह दमयन्तीका एक नियमसा था। इसी नियमानुसार वह हरिमित्रके पास भी पहुँची और उससे पूछने लगी कि भाई ! तुम्हें किसी वस्तुकी आवश्यकता तो नहीं है ? हरिमित्रको किसी खाद्यपदार्थकी आवश्यकता न
SR No.010428
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year1956
Total Pages433
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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