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________________ ५८ नैष्कर्म्यसिद्धिः समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं । क्योंकि-- सदाऽविलुप्तसाक्षित्वं स्वतः सिद्धं न पार्यते । अपह्नोतुं . घटस्येव कुशाग्रीयधियात्मनः ॥ ३६ ॥ कुशाग्रके समान सूक्ष्म बुद्धिवाले पुरुष स्वत: सिद्ध, सदा अलुत द्रदत्वरूप श्रात्माके साक्षित्वको, घटादिके समान, छिपा नहीं सकते हैं ॥ ३६ ।। एतस्माच्च हेतोरहङ्कारस्याऽनात्मधर्मत्वमवसीयताम् । यतो राद्धिः प्रमाणानां स कथं तैः प्रसिद्धयति ।। ३७ ।। और इस कारणसे भी अहङ्कारको यात्मासे भिन्नका (अनात्माका) धर्म समझना चाहिए कि अहङ्कारका घटादिके समान प्रमाणांसे ग्रहण किया जाता है। यदि कहो कि अात्माका भी तो प्रमाणोंसे ही ग्रहण किया जाता है, इसलिए वह भी अनात्मा हो जायगा, तो यह ठीक नहीं। क्योंकि जिससे समस्त प्रमाणोंकी सिद्धि होती है, वह यात्मा प्रमाणोंसे कैसे सिद्ध किया जा सकता है ? ॥ ३७ ॥ धर्मिणश्च विरुद्धत्वान्न दृश्यगुणसङ्गतिः । मारुतान्दोलितज्वालं शैत्यं नाऽग्नि सिसृप्सति ॥ ३८ ॥ धर्म (अहंकार) और धर्मी (आत्मा) दोनों परस्पर विरुद्ध हैं, इसलिए भी उनका सम्बन्ध नहीं हो सकता है। जैसे वायुसे प्रज्वलित अमिको शीतका स्पर्श नहीं हो सकता है । वैसे ही दृश्यके गुणोंके साथ धर्मी अात्माको विरोध होनेके कारण उनका (दृश्यके गुणोंका ) उससे (आत्मासे ) सम्बन्ध नहीं हो सकता है । तस्माद् विस्रब्धमुपगम्यताम् । द्रष्ट्रत्वं दृश्यता चैव नैकस्मिन्नेकदा क्वचित् । दृश्यदृश्यो न च द्रष्टा द्रष्टुर्दर्शी दृशिर्न च ॥ ३९ ।। इसलिए निःशङ्क होकर मान लीजिए कि . द्रष्टत्व और दृश्यत्व कभी भी, कहीं भी एक समय एकमें नहीं रहते। तथा द्रष्टा दृश्योंका दृश्य और दृश्य द्रष्टाका द्रष्टा कदापि नहीं होता ॥ ३६॥ १-एवं धर्मधर्मिणोः, ऐसा पाठ भी है। २-'सिसृक्ष्यति, और सिसृप्स्यति, ऐसा भी पाठ है।' सिसृप्सति = उपगच्छति, सम्बध्यत इति यावत् ।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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