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________________ नैष्कर्म्यसिद्धिः प्राब्रह्मस्तम्बपर्यन्तः सर्वप्राणिभिः सर्वप्रकारस्यापि दुःखस्य स्वरसत एव जिहासितत्वात् तन्निवृत्त्यर्था' प्रवृत्तिरस्ति स्वरसत एव । ब्रह्मासे लेकर छोटेसे-छोटे तृणपर्यन्त अर्थात कीटपतङ्ग पर्यन्त सब प्राणियों में सब प्रकारके दुःखोंको छोड़नेकी इच्छा स्वभावतः ही रहती है, इसलिए उनको दूर करने के निमित्त ( प्राणियोंकी ) चेटा भी स्वयमेव होती है। दुःखस्य च देहोपादानैकहेतुत्वात् , देहस्य च पूर्वोपचितधर्माऽधर्ममूलत्वादनुच्छित्तिः। तयोश्च विहितप्रतिपिद्धकर्ममूलत्वादनिवृत्तिः, कर्मणश्च रागद्वेषास्पदत्वाद्रागद्वेषयोश्च शोभनाशोभनाध्यासनिबन्धनत्वादध्यासस्य चारुविचारितसिद्धद्वैतवस्तुनिमित्तत्त्वात् , द्वैतस्य च शुक्तिकारजतादिवत्सर्वस्यापि स्वतःसिद्धाद्वितीयात्मा'नवबोधमात्रोपादानत्वादव्यावृत्तिरतः सर्वानर्थहेतुरात्माऽनवबोध एव । देह धारण करना ही दुःखका एकमात्र कारण है और देह पूर्वजन्ममें सञ्चित धर्माधर्मसे उत्पन्न होता है, अतएव उनका उच्छेद हुए बिना, धर्म और अधर्म के निवृत्त हुए बिना, देहका उच्छेद नहीं हो सकता। और जबतक विहित एवं प्रतिषिद्ध काँका याचरण होता रहता है, तबतक धर्म और अधर्मकी भी निवृत्ति नहीं हो सकती। कर्म राग-द्वेषमूलक हैं । राग-द्वेष विषयोंमें सुन्दरता और असुन्दरता बुद्धिरूप मिथ्याभ्रमसे उत्पन्न होते हैं। मिथ्याभ्रान्ति जिसकी सत्ता विचार न करनेसे ही है ऐसे द्वैतवस्तु के कारण हुअा करती है और समस्त द्वैतका उपादान कारण, शुक्तिमें रजतभ्रमके समान, स्वयम्प्रकाश अद्वितीय आत्माका अज्ञान ही है। इसलिए परम्परासे सब अनर्थीका १ यहाँ ग्रन्थकारने 'तन्निवृत्यर्थी प्रवृत्तिरस्ति स्वरसत एव' इससे यह सूचित किया है कि समस्त दुःखोंकी निवृत्ति चाहनेवाला पुरुप इसका अधिकारी है। 'दुखस्य' इत्यादिसे 'अशेष पुरुषार्थ परिसमाप्तिः' इत्यन्त ग्रन्थके द्वारा यह सूचित किया है किदुःखकी प्रात्यन्तिक निवृत्ति ही इसका प्रयोजन है और वह आत्मज्ञानसे व्यतिरिक्त अन्य साधनोंसे असाध्य है। २ यहाँ “यात्मनः विषयभूतस्य, अात्मनि श्राश्रयभूते" ऐसा अर्थ करना चाहिए । क्योंकि अविद्याका अाश्रय और विषय शुद्ध चैतन्य ही है, जैसा कि संक्षेपशारीरकमें कहा गया है अाश्रयत्वविषयत्वभागिनी निर्विभागचितिरेव केवला । पूर्वसिद्धतमसो हि पश्चिमो नाश्रयो भवति नापि गोचरः ।। . और इस अध्यायके ७३ श्लोकमें भी यह बात कही गई है।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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