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________________ नैश्कर्म्यसिद्धिः ही आधारको-कदलीवृक्षको नष्ट कर देता है, वैसे ही वह विवेक बुद्धिका नाशक बन जाता है ॥ १४ ॥ सोऽयमतत्त्वे तत्वदृक्अनुमानप्रदीपेन हित्वा सर्वाननात्मनः । संसारकावलम्विन्या तदभावं धियेप्सति ॥ १५ ॥ इसपर यदि ऐसी आशङ्का करो कि 'यथोक्त विवेकसे ही द्वरत प्रपञ्चकी निवृत्ति • होती है तो फिर वेदान्त-वाक्योंकी क्या आवश्यकता है ? तो यह ठीक नहीं। क्योंकि अात्मा और अनात्माका जो भेद है वह भी अद्वतके विपरीत होनेसे अतत्त्व ही कहाता है। अतएव विवेकबुद्धि भी भ्रान्ति ही है। इसलिए यह जो अतत्व (आस्माअनात्माका विवेक ) है, उसमें तत्त्वदृष्टि रखनेवाला पुरुष अनुमानरूप प्रदीपसे सम्पूर्ण अनात्माको त्यागकर भेदरूप संसारको अवलम्बन करनेवाली विवेकबुद्धिके द्वारा उसकी भी निवृत्ति चाहता है । अतएव वाक्यार्थज्ञानके बिना संसारकी निवृत्ति नहीं होती ॥१५॥ योऽयमन्वयव्यतिरेकजो विवेक आत्माऽनात्मविभागलक्षणोऽनात्मस्थः स्थाणौ संशयावबोधवत् प्रतिपत्तव्योऽयथावस्तुस्वाभाव्यान्मृगतृष्णकोदकप्रबोधवदित्यत आह संसारबीजसंस्थोऽयं तद्धिया मुक्तिमिच्छति । शशो निमीलनेनेव' मृत्यु परिजिहीर्षति ॥ १६ ॥ यह जो पहले अन्वय और व्यतिरेकसे उत्पन्न हुआ, आत्मा और अनात्माके विभागको प्रकाशित करनेवाला, अनात्मामें (अन्तःकरण में) रहनेवाला विवेक दिखलाया वह भी स्थाणुमें संशयात्मक ज्ञानके तुल्य ही है। ऐसा समझना चाहिए। क्योंकि भेद आत्मस्वरूप नहीं है, अतएव मृगतृष्णाके उदकशानके समान ही मिथ्या है। इसीलिए कहते हैं संसारके बीज अज्ञानमें ही रहकर यह विबेक बुद्धिवाला पुरुष यदि अज्ञान-कल्पित भेदबुद्धिसे ही मुक्ति चाहता है, तो वह उसका चाहना, जैसे शश ( खरगोश ) [ बिल्ली आदिके सामने अपनी आँखोंको मूंद लेनेसे ही मृत्युको जीतना चाहता है, ठीक उसीके समान है ॥ १६ ॥ अस्याऽर्थस्य द्रढिम्ने श्रुत्युदाहरणम्1-अनात्मस्थः सन्, ऐसा और स्थाणोः, ऐसा भी पाठ है। २-दशो निमोलनेनेव, ऐसा पाठ भी है।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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