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________________ भाषानुवादसहिता इममर्थ पुरस्कृत्य श्रुत्या सम्यगुदाहृतम् । यच्चक्षुषेति विस्रब्धं न दृष्टेरिति च स्फुटम् ॥ १७ ॥ वाक्य-जन्य ज्ञानसे ही संसारकी निवृत्ति होती है, इस विषयको दृढ़ करने के लिए श्रुतिके प्रमाणोंका उपन्यास करते हैं वाक्य ही अज्ञानका निवर्तक है, दूसरा नहीं। इसी बातको दृढ़ करनेके लिए अतिने विस्पष्ट और निःसन्देहसे अच्छी-प्रकार यह कहा है कि "ब्रह्मरूप वस्तुको चक्षुसे नहीं देख सकते" "बुद्धिबृत्ति के साक्षीको दृश्यबुद्धिसे जाननेकी कोशिश मत करो" ॥ १७॥ बुद्धयन्तमपविद्धयेवं कोन्वहं स्यामितीक्षितुः । श्रुतिस्तत्त्वमसीत्याह सर्वमानातिगामिनी ॥ १८ ॥ (यदि प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे आत्मतत्व नहीं ज्ञात हो सकता, तब कैसे उसका ज्ञान होगा? इस प्रश्नका उत्तर देते हैं--) पूर्वोक्त अन्वय-व्यतिरेकसे शरीरसे लेकर बुद्धिपर्यन्त अनात्म-पदार्थों का संशोधन करके 'मैं कौन हूँ' इस प्रकार अपने स्वरूपका अन्वेषण करनेवाले पुरुषको-समस्त प्रमाणोंको अतिक्रमण करके अद्वैत वस्तुका बोधन करानेवाली-श्रुति कहती है कि 'त् वही सत् चित् अानन्द स्वरूप ब्रह्म है ।' ॥१८॥ एष संक्षेपतः पूर्वाऽध्यायत्रयस्याऽर्थ उक्तः। सोऽयं न्याय्योऽपि वेदान्तार्थः शास्त्राचार्यप्रसादलभ्योऽप्यनपेक्षितशास्त्राचार्यप्रसा'दोऽनन्यापेक्षसिद्धस्वभावत्वात्कैश्चिच्छद्दधानै प्रतीयते । तेषां सङ्ग्रहार्थमभिमतप्रामाण्योदाहरणम् । . भगवत्पूज्यपादेच उदाहायैवमेव तु । सुविस्पष्टोऽस्मदुक्तोऽर्थः सर्वभूतहितैषिभिः ॥ १९ ॥ इस प्रकार सक्षेपसे पूर्वोक्त तीन अध्यायोंके अर्थका वर्णन किया। सो यह युक्तियुक्त वेदान्त-प्रतिपाद्य जीव और ब्रह्मकी एकतारूप अर्थ शास्त्र एवं श्राचार्यके प्रसादसे प्राप्त होने योग्य होनेपर भी शास्त्र और आचार्यके प्रसादको अपेक्षा नहीं रखता। क्योंकि यह निरपेक्ष अन्य किसीकी अपेक्षा न रखनेवाला, स्वयंसिदस्वरूप है। श्रतएव जिन श्रद्धालुओंको उसकी प्रतीति नहीं होती उनके सङ्ग्रहार्थ, जिनका -ईक्षितुम्, ऐसा भी पाठ है। २-प्रामाण्योदीरणम्, ऐसा पाठ भी है। ३-चाप्युदाहारि, ऐसा पाठ भी है।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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