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________________ भाषानुवादसहिता धीविक्रियासहस्राणां हानोपादानधर्मिणाम् । सदा साक्षिणमात्मानं प्रत्यक्त्वान्नाऽहमीक्षते' ॥ १३ ॥ यहाँ तक प्रत्यक्षादि प्रमाणोंके स्वरूपका विचार करके उन प्रमाणोसे आत्माके प्रकाशित न होने में कारण बतलाया। अब प्रमेय आत्मस्वरूपके विचार करनेसे भी प्रत्यक्षादि प्रमाणोंका निषेध करते हैं जो सम्पूर्ण बुद्धि- वृत्तियोंकी उत्पत्ति और विनाशका साक्षी है। उस इन्द्रियादिके अविषयभूत साक्षीको अन्तःकरण प्रकाशित नहीं कर सकता । ॥ १३ ॥ कपुनरियं विवेकबुद्धिः किमात्मन्युताऽनात्मनीति । किश्चातः । यद्यात्मनि कूटस्थत्वव्याघातोऽनात्मदर्शित्वात् । अथाऽऽनात्मनि 'तस्याऽप्यचैतन्यान्न विवेकसम्बन्ध' इत्युच्यते 'दाह्यदाहकतैकत्र' इत्युक्त-परिहारात् । वुद्धावेव विवेकोऽयं यदनात्मतया भिदा । बुद्धिमेवोपमृगाति कदली तत्फलं यथा ॥ १४ ॥ शङ्का-फिर यह विवेकबुद्धि किसको होती है ? आत्माको होती है या अनात्माको? यदि कहिए कि इससे क्या प्रयोजन सिद्ध होगा? तो सुनिए -यदि श्रात्मा उस विवेकबुद्धिका आश्रय हो अर्थात् यदि विवेकबुद्धिरूप परिणामको आत्मामें माना जाय, तब उसकी कूटस्थताका व्याघात होगा और यदि अनात्माको विवेकबुद्विका श्राश्रय माने तो वह भी ठीक नहीं. क्योंकि वह जड़ है ? समाधानजैसे अग्निका लोहपिण्डके साथ तादात्म्याध्यास होनेसे उसमें दाह्यत्व और दाहकत्व ये दोनों धर्म एकत्रित होते हैं । उसी प्रकार अहङ्कार और आत्माके तादात्म्याध्याससे अचेतन भी अहकारको ज्ञातृत्व होता है; ऐसा पहले ही प्रतिपादन किया है । इसी कारण अहङ्कारपरिणामरूप विवेकज्ञानको आत्माके ऊपर आरोपित किया जाता है। अतएव आत्माकी कूटस्थता भी नष्ट नहीं हुई और न केवल अचेतनको ज्ञानका आश्रय मानना पड़ा। अत: जिस ( बुद्धि ) की अनात्मता होनेके कारण आत्मासे भेद माना जाता है, उस बुद्धिका ही धर्म विवेक है। इसलिए जैसे कदलीफल (केला) अपनी उत्पत्तिसे अपने १-नाहमेक्षते, ऐसा पाठ भी है। २-तस्या अप्यचैतन्यस्य, ऐसा पाठ भी है। ३-विवेकसंभवः, ऐसा भी पाठ है।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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