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________________ नैष्कर्म्यसिद्धिः भेदसंविदिदं ज्ञानं भेदाभावश्च साक्षिणि । कार्यमेतदविद्याया ज्ञात्मना त्याजयेद्वचः ॥ ६॥ जो यह श्रात्मा और अनात्माका विवेकज्ञान है, वह भेद निश्चयका फल है। श्रुतियाँसे साक्षिचैतन्यमें भेदका अभाव सुना जाता है । इसलिए यह विवेकज्ञान भेदशून्य वस्तुमें होनेसे अविद्याका कार्य अर्थात् भ्रान्तिरूप है, अतएव वह वाक्य-जन्य नहीं है। किन्तु वाक्य अखण्ड अद्वितीय चैतन्यका ज्ञान उत्पन्न करके कार्यसहित इस अज्ञानको दूर कर देता है ॥ ६॥ ___'ज्ञात्मना त्याजयेद् वचः' इत्युपश्रुत्याह कश्चित्-मिथ्याज्ञानव्यतिरेकेणात्मानवबोधस्याऽभावात्कि वाक्येन निवर्त्यते ? अज्ञानं हि नाम ज्ञानाभावः तस्य चाऽवस्तुस्वाभाव्यात् कुतः संसारकारणत्वम् ? न ह्यसतः सज्जन्मेष्यते-'कुतस्तु खलु सोम्यैवं स्यादिति कथमसतः सजायते' इति श्रुतेरिति । अत्रोच्यते 'तत्त्वमसि' वाक्य अद्वितीय बोधाकार वृत्तिद्वारा ब्रह्मरूपताको प्राप्त कराकर अविद्याकी निवृत्ति करते हैं; इस बातको सुनकर कोई वादी शङ्का करते हैं कि मिथ्याज्ञानरूप भ्रान्तिज्ञानसे अतिरिक्त तथा ज्ञानाभावसे अतिरिक्त भावरूप अज्ञान नामक पदार्थ ही नहीं है। फिर वाक्यके द्वारा किसकी निवृत्ति की जाय ? अज्ञान कहनेसे ज्ञानका अभाव बोधित होता है, इसलिए अज्ञान अभावरूप है। अभाव तो कोई चीज़ नहीं है। फिर वह संसारका कारण किस प्रकार हो सकता है ? क्योंकि अभावसे कभी भावकी उत्पत्ति नहीं होती। श्रति भी कहती है कि-हे प्रियदर्शन ! भला यह बात किस प्रमाणसे सिद्ध हो सकती है असत्से सत् कैसे हो सकता है ? इस शङ्काके समाधानके लिए कहते हैं अभावके ज्ञानमें, उसके प्रतियोगीका ज्ञान ( जिसका अभाव हो उसको प्रतियोगी कहते हैं उसका ज्ञान ) और धर्मीका ज्ञान ( जहाँपर अभावका ज्ञान हो उसको धर्मों कहते हैं उसका ज्ञान) आवश्यक है। धर्मी और प्रतियोगीके ज्ञानके बिना अभावका ज्ञान कभी नहीं होता। जब ऐसा नियम है तब विचार करना चाहिये कि अज्ञान यदि ज्ञानाभावरूप हो तो सोकर उठनेके बाद प्राणिमात्रको इस प्रकार स्मरण होता है कि"मैं अबतक कुछ भी नहीं जानता था ।” यदि यह ज्ञानाभावका ही स्मरण है, तो स्मरण अनुभवके बिना नहीं होता, इसलिए सुषुप्ति दशामें ज्ञानाऽभावका अनुभव हुआ है,ऐसा कहना पड़ेगा, किन्तु यह बात उपपन्न नहीं होती । कारण, अभावके ज्ञान में धर्मी और प्रतियोगीके ज्ञानकी आवश्यकता है। यदि उस समय धर्मी और प्रतियोगीका ज्ञान हो तब सुषुप्ति ही नहीं होगी और ज्ञानाभाव भी नहीं होगा । क्योंकि धर्मी और प्रतियोगीका
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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