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________________ भाषानुवादसहिता ज्ञान है, इसलिए सुषुप्तिमें ज्ञानाभावका अनुभव नहीं हो सकता । सुतराम् उठनेके बाद स्मरण भी नहीं हो सकता। इसलिए उत्थानानन्तर "मैं अब तक कुछ भी नहीं जानता था ऐसा जो ज्ञान होता है वह सुषुप्ति कालमें ज्ञ नाभावका अनुमानरूप है, यह भी नहीं कह सकते, क्योंकि अनुमानमें कोई हेतु नहीं है। यदि कहो कि स्मरण न होना यही हेतु हो सकता है यदि सुषुप्तिकाल में कोई भी ज्ञान होता तो हमको अवश्य उसका स्मरण होता। स्मरण नहीं होता है, इसलिए सुषुप्ति कालमें कोई ज्ञान नहीं है, ऐसा अनुमान कर सकते हैं। यह भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई नियम नहीं है कि ज्ञान होनेसे ही उसका स्मरण कालान्तरमें जरूर हो। ऐसा बहुत देखा जाता है कि बाल्यावस्था में बहुत-सी बातोंका ज्ञान हुआ है, परन्तु वृद्धावस्थामें उन सबका स्मरण नहीं होता । अतएव उत्थानानन्तर स्मरण नहीं होता। इसलिए उस समय ज्ञान नहीं था, ऐसा अनुमान नहीं कर सकते। अत: जिस कारण स्मरण होता है उसी कारणसे सुषुप्ति दशामें भावरूप अज्ञानका साक्षीरूप अनुभव है, ऐसा कहना चाहिए। इसीसे भावरूप अज्ञान सिद्ध हुआ । क्योंकि जिस कारण धर्मी और प्रतियोगीके ज्ञान होनेके पूर्व सभी पदार्थ अज्ञात रहता है । यदि सभी पदार्थ अज्ञानके विषय है, ऐसा कहिये ? तो पहले जो कहा था कि आत्मा ही अज्ञानका विषय हैं, यह बात गयी ? इस शङ्काको दूर करनेके लिए कहते हैं अज्ञात. एव सर्वोऽर्थः प्राग्यतो बुद्धिजन्मनः। एकेनैव सता संश्च' सन्नज्ञातो भवेत्ततः ॥ ७ ॥ नामरूपात्मक सारा प्रपञ्च प्रलयकालके सदृश, सुषुप्तिमें अज्ञातसद्प-वस्तुमात्ररूपसे प्रलीन होता है । फिर प्रबोध समयमें उद्भूत होता है। यह वेदान्तका सिद्धान्त है । क्योंकि-श्रुतियों में सुषुप्तिमें प्रलय और जाग्रत्में सृष्टिका कथन किया है। द्वैतमात्र शुक्तिमें रजतके सदृश कल्पित है, इसलिए अपने अधिष्ठान-सद्रूप ब्रह्मसे पृथकरूपमें उसकी स्थिति भी नहीं हो सकती है। अतएंव सुषुप्तिकालमें एक ही सद्रूप ब्रह्मसे समस्त वस्तुओंकी सत्ता है। वही सद्प (ब्रह्म) अनादि अज्ञानका विषय है, उससे भिन्न वस्तुमात्र अज्ञानसे कल्पित होनेके कारण अज्ञानका विषय नहीं हो सकता | इसलिए सत्पदार्थ ही सुषुप्ति में अज्ञात है, अतएव आत्मा ही अज्ञान का विषय है, यह सिद्धान्त. त्यक्त नहीं हुआ। [अथवा प्रकारान्तरसे इस श्लोककी व्याख्या हो सकती है-1 - जाग्रत् अवस्थामें भी सभी पदार्थ ज्ञान होने के पहले अज्ञात रहते हैं, इस बातक. सभी स्वीकार करते हैं। क्योंकि यदि पहले वस्तुका शान रहे तो पीछेसे तद्विषयक ज्ञान नहीं हो सकता है । जिस समय ज्ञान नहीं है, उस समय वस्तुका व्यवहार नहीं हो सकता। १ सत्ता सत्त्वम् ।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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