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________________ नैष्कयसिद्धिः दग्धृत्वं च यथा बढेरयसो भन्यते बुधीः । चैतन्यं तद्वदात्मीयं मोहात्कर्तरि मन्यते ॥ १०२॥ जैसे मूर्खपुरुष अग्निके धर्म-जलानेको लोहे में समझ लेता है। वैसे ही आत्मा के चैतन्यको मूर्खतावश बुद्धिका चैतन्य समझ लेता है ।। १०२ ।। सर्व एवाऽयमात्मानात्मविभागः प्रत्यक्षादिप्रमाणवर्त्मन्यनुपातितोऽविद्योत्सङ्गवत्येव न परमात्मव्यपाश्रयः । अस्याश्चाऽविद्यायाः सर्वाऽनर्थहेतोः कुतो निवृत्तिरिति चेत्तदाह । प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे सिद्ध यह सब अात्मा और अनात्मा, इस प्रकारका द्वैत प्रपञ्च अविद्याके ही आश्रय है। परमात्माके आश्रय नहीं । इसलिए समस्त अनर्थोकी जननी इस अविद्याकी निवृत्ति किससे होती है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हैं दुःखराशेर्विचित्रस्य सेयं भ्रान्तिश्चिरन्तनी । मूलं संसारवृक्षस्य तनावस्तत्त्वदर्शनात् ।। १०३ ॥ इस दुःखराशिरूप विचित्र संसार वृक्षका बीज यही अनादिकाल से चली आती हुई भ्रान्ति है । उसका सर्वथा नाश तत्त्वज्ञानसे होता है ॥ १०३ ॥ तद् बाधस्तत्त्वदर्शनादिति कुतः सम्भाव्यते, इति चेदत आह । आगोपालाऽविपालपंडितमियमेव प्रसिद्धिः। अप्रमोत्थं प्रमोत्थेन ज्ञानं ज्ञानेन बाध्यते । अहिरज्ज्वादिवद् बाधो देहायात्ममतिस्तथा ॥ १०४ ॥ शङ्का-उस भ्रान्तिका नाश तत्त्वज्ञानसे होता है, यह कैसे सम्भावित है ? समाधान-गोपाल और अजापालोंसे लेकर पण्डितों तक यह बात प्रसिद्ध है कि भ्रान्तिसे उत्पन्न मिथ्याज्ञान प्रमाणसे उत्पन्न यथार्थानसे बाधित होता है। जैसे रज्जुमें भ्रान्तिसे उत्पन्न सर्पका भ्रम रज्जुके यथार्थज्ञानसे निवृत्त हो जाता है। वैसे हो देहादिमें उत्पन्न आत्मबुद्धिका नाश भी प्रात्मज्ञानसे होता है ।। १०४ ।। .. लौकिकप्रमेयवैलक्षण्यादात्मनो नेहानधिगताधिगमः प्रमाणफलम् । अविद्यानाशमानं तु फलमित्युपचर्यते नाऽज्ञातज्ञापनं . न्याय्यमवगत्येकरूपतः ॥ १०५ ।। __ लोकप्रसिद्ध जानने योग्य विषयोंसे आत्मा विलक्षण है, इसलिए इस श्रात्माको १-मस्यते, ऐसा तथा 'अन्धधीः, ऐसा भी पाठ है।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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