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________________ भाषानुवादसहिता प्रकाशित करना यह प्रमाण का फल नहीं हो सकता। किन्तु अविद्याका नाशमात्र ही यहाँ गौणरीत्या प्रमाणका फल व्यवहृत होता है । अज्ञात आत्माका प्रकाशित होना यह मानना युक्तियुक्त नहीं है । क्योंकि प्रात्मा सर्वदा ज्ञानरूप है अतएव उसमें प्रावरणका सम्भव ही नहीं है ॥ १०५ ।। यस्मादात्माऽनवबोधमात्रोपादानाः प्रमात्रादयस्तस्मात् । न विदन्त्यात्मनः सत्तां द्रष्ट्रदर्शनगोचराः।। न चान्योऽन्यमतोऽमीप ज्ञेयत्वं भिन्नसाधनम् ॥१०६।। क्योंकि आत्माके अज्ञानमात्रसे ही यह प्रमाता, प्रमाण प्रमेय इत्यादि द्वैत है इसलिए द्रष्टा (प्रमाता ), दर्शन ( ज्ञान ) और गोचर ( विषय ) अर्थात् बुद्धिकी वृत्ति ये अपनी सत्ताको नहीं जानते और न ये परस्पर ही एक दूसरे को जानते हैं। क्योंकि वे जड़ हैं, इस कारण से इनका प्रकाश किसी दूसरेके द्वारा होता है ॥ १०६ ॥ द्रष्टादेरसाधारणस्वरूपज्ञापनायाह ।। द्रष्टा, दर्शन और विषयका असाधारण स्वरूप बतलाने के लिए कहते हैंबाह्य आकारवान् ग्राह्यो ग्रहणं निश्चयादिमत् । अन्वय्यहमिति ज्ञेयः साक्षी वात्मा ध्रुवः सदा ।। १०७॥ ग्रहण करने योग्य अपनेसे भिन्न तथा आकारयुक्त पदार्थोंको विषय कहते हैं । निश्चय, संशय इत्यादि वृत्तियों को ग्रहण कहते हैं। मैं सुनता हूँ' 'मैं निश्चय करता हूँ। 'मैं स्मरण करता हूँ' इस प्रकार निश्चयादि वृत्तियोंमें जो एक 'अहम्'--'मैं' अनुगत भासमान होता है, वह द्रष्टा है । और जो इन तीनोके भावाभावीका साधक, सुषुप्ति और मोक्षादि अवस्थाओं में अनुगत, कूटस्थ तथा निस्य है, वह आत्मा साक्षी कहलाता है ॥ १०७ ॥ सर्वकारकक्रियाविभागात्मकसंसारशून्य आत्मेति कारकक्रियाफलविभागसाक्षित्वादात्मनस्तदाह । . ग्राहकग्रहणग्राह्यविभागे योऽविभागवान् । हानोपादानयोः साक्षी हानोपादानवर्जितः ॥ १०८ ॥ आत्मा कारक, किया और फल इत्यादि सर्व प्रकारके द्वैतका साक्षी हैं। इस कथनसे आत्मा सब प्रकारके क्रिया, कारक अादि द्वैतोंसे शून्य है, यह सिद्ध हो गया। इसी बात को कहते हैं ग्राहक, ग्रहण और विषय इन तीनोंके विभक्त होनेपर भी जिसका स्फुरणस्वरूपसे कभी विभाग नहीं होता तथा जो स्वयं भावाऽभावोंसे रहित होता हुआ ग्राहक आदिके भावाभावों का साक्षी है (वह आत्मा है । ) ।। १.८॥ माया
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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