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________________ भाषानुवादसहिता स्वयमनवगमात्मकत्वादनवगमात्मकत्वं च मोहमात्रोपादानत्वात् । प्रमाणमन्तरेणैषां बुद्धयादीनामसिद्धता। अनुभूतिफलार्थत्वा दात्मज्ञः किमपेक्षते ॥ ९९ ॥ बुद्धयादि पदार्थ स्वयं अज्ञानरूप अर्थात् जड़ हैं। क्योंकि उनका उपादान कारण मोहमात्र ही है। इसलिए भी उनको इतरकी अपेक्षा होनेसे उनकी अप्रकाशरूपता सिद्ध होती है। बुद्धि आदिकी सिद्धि बिना प्रमाणेांके नहीं होती। क्योंकि स्वयं वे अनुभव. रूप फलसे युक्त नहीं हैं । अतएव उनको प्रमाणादिकी अपेक्षा है। शङ्का-अात्मा भी तो उपनिषदोंके प्रमाणोंके बिना सिद्ध नहीं होता ? समाधान--प्रात्मा ज्ञानस्वरूप है, इसलिए उसको अज्ञाननिवृत्तिसे अतिरिक्त और किसीकी भी अपेक्षा नहीं है ॥ ९९ ॥ वक्ष्यमाणेतरेतराध्याससिद्धयर्थमुक्तव्यतिरेकानुवादः। घटबुद्धेर्घटाचार्थाद् द्रष्टुर्यद्वद्विभिन्नता । अहंबुद्धेरहंगम्याद् दुःखिनश्च तथा दृशेः ॥ १०० ॥ आगे जिसका प्रतिपादन करेंगे उस आत्म-अनात्माके परस्पर अध्यासको सिद्ध करने के लिए पूर्वोक्त अनात्मासे (अात्माके) भेदका अनुवाद किया जाता है घटज्ञान और घटस्वरूप अर्थ, इन दोनोसे जिस प्रकार द्रष्टा भिन्न है, इसी प्रकार 'अहम्'-'मैं'-इस प्रकारका ज्ञान और उसके विषय दुःखादियुक्त पदार्थसे आत्मा भिन्न है ।। १०० ॥ एवमेतयोरात्मानात्मनोः स्वतः परतः सिद्धयोलौकिकरज्जुसध्यारोपवदविद्योपाश्रय एवेतरेतराध्यारोप इत्येतदाह । ___ इस प्रकार जो यह स्वत: सिद्ध और परतः सिद्ध आत्मा और अनात्मा, ऐसे दो पदार्थ हैं, इनका एकका दूसरे अध्यास लौकिक रज्जुमें सर्प के अध्यासके समान है। . यही बात कहते हैं अभ्रयानं यथा मोहाच्छशभृत्यध्यवस्यते । सुखित्वादीन् धियो धर्मास्तद्वदात्मनि मन्यते ॥ १०१॥ . जैसे कोई मे?की गमनादि क्रियाको मोहब्रश चन्द्रमामें समझ लेता है। इसी प्रकार सुखदुःखादि बुद्धि के धर्मोको अज्ञानो अात्मामें समझ लेता है ।। १०१॥ । १-फलार्थित्वात् , भी पाठ है। २-दुःखित्वादीन् , पाठान्तर है।
SR No.010427
Book TitleNaishkarmya Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrevallabh Tripathi, Krushnapant Shastri
PublisherAchyut Granthmala Karyalaya
Publication Year1951
Total Pages205
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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