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________________ श्रुतज्ञान भी स्वरूप सन्मुख भया । ऐसा वर्णन समयसार की टीका आत्मख्याति वि किया. है तथा आत्मा अवलोकनादि विषै है, इस ही वास्ते निर्विकल्प अनुभवको अतेन्द्रिय कहिए है, जाते इन्द्रीनको धर्म तो यह है जो फरस, रस, गन्ध, वर्णको जाने सो यहा नाही। अर मन का धर्म यह है जो अनेक विकल्प करे सो भी यही नाही, तातै जव जो ज्ञान इन्द्री मन के द्वारे प्रवर्ते था सो ही ज्ञान अनुभव विषै प्रवर्ते है तथापि ज्ञानको अतीन्द्रिय कहिये है। बहुरि इस स्वानुभव को मन द्वारे भी भया कहिये जातें इस अनुभव विपै मतिज्ञान श्रु तज्ञान ही है, और कोई ज्ञान नहीं। मतिश्रु त इन्द्री मनके अवलम्ब बिना होय नाही सो इन्द्री मन का तो अभाव ही है जातै इन्द्रियका विषय मूर्तीक पदार्थ ही है । बहुरि यहा मतिज्ञान है जात मन का विषय मूर्तीक अमूर्तीक पदार्थ है, सो यहा मन सम्बन्धी परिणाम स्वरूप विप एकाग्र होय अन्य चिन्ता का विरोध करै है ताते याको मन द्वारै कहिए है। ___ "एकाग्रचिंतानिरोधो ध्यानम्" ऐसा ध्यान का भी लक्षण है, ऐसा अनुभव दशा विपै सभने है । तथा नाटक के कवित विषै कहा है : दोहा वस्तु विचारत भावसें ध्यावते, मन पावै विश्राम । रस स्वादित सुख ऊपजै, अनुभव याको नाम ॥ ऐसे मन विना जुदा परिणाम स्वरूप विष प्रवर्ता नाही ताते स्वानुभवको मन जनित भी कहिए । सो अतेन्द्रीय कहने मे अरु मन जनित कहने मे कछ विरोध नही, विवक्षा भेद है। बहुरि तुम लिख्या "जो आत्मा अतेन्द्रिय है" सो अतेन्द्रिय ही कर ग्रहा जाय, सो भाईजी मन अमर्तीक का भी ग्रहण कर हैं, जाते मति श्रुत ज्ञानका विषय सर्व द्रव्य कहै है। उक्त च तत्वार्थसूत्रे "श्रु गतिक्षु तयोनिवन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेपु।" बहुरि तमुने “प्रत्यक्ष परोक्षका प्रश्न लिख्या" सो भाईजी, प्रत्यक्ष परोक्ष के तो भेद हैं नाहीं। चौथे गुणस्थान मे सिद्ध 'समान क्षायक सम्यक्त हो जाय है, तातें सम्पक्त तो केवल यथार्थ श्रद्धानरूप ही है वह जीव शुभाशुभ कार्यकर्ता भी रहे है ताते तुमने जो लिख्या था कि "निश्चय सम्यक्त प्रत्यक्ष है व्यवहार सम्यक्त परोक्ष है" सो ऐसा नाही है, सम्यक्त के तो तीन भेद है तहा उपशम सम्यक्त अरु क्षायक सम्यक्त तो निर्मल है, जातै मिथ्यात्व उदय इस सम्यक्त विपै क्षयोपशम सम्यक्त समल है । बहुरि करि रहित हैं, अर प्रत्यक्ष परोक्ष भेद तो नाही है। श्रायक क्षाविक सम्यक्तके शुभाशुभ रूप प्रवर्तता वा स्वानुभवरूप प्रवर्तता सम्यक्त गुण तो सामान्य ही है ताते सम्यक्त तो प्रत्यक्ष परोक्ष भेद न मानना । बहुरि प्रमाण के प्रत्यक्ष परोक्ष भेद है सो प्रमाण सम्यग्रज्ञान है तातें मतिज्ञान श्रु तज्ञान तो परोक्ष प्रमाण हैं । अवधि मन पर्यय केवल ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण है । 28 ] . मुलतान दिगम्बर जैन समाज-इतिहास के आलोक मे
SR No.010423
Book TitleMultan Digambar Jain Samaj Itihas ke Alok me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMultan Digambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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