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________________ जो शुभाशुभरुप प्रशामते सम्यक्तका अस्तित्व कैसे पाइए । ताका समाधान-जैसे कोई गुमास्ता साहूके कार्य विषै प्रवर्ते है, उस कार्य को अपना भी है है हर्ष विपादको भी पावे है, तिस कार्यं विषं प्रवर्ते है, तहा अपनी और साहू की जुदाई को नाही विचारे है परन्तु अतरंग श्रद्धान ऐसा है कि यह मेरा कारज नाही । ऐसा कार्यकर्त्ता गुमास्ता साहूकार है । परन्तु साहू के धनकू चुराय अपना माने तो गुमास्तो चोर ही कहिए | तैसे कर्मोदयजनित शुभाशुभरूप कार्य को कर्ता हुआ तदरूप परणमे तथापि अन्तरग ऐसा श्रद्धान है कि यह कार्य मेरा नाही । जो शरीराश्रित व्रत संयम की भी अपना माने तो मिथ्यादृष्टि होय । सो ऐसे सविकल्प परिणाय होय है । '~~~~ अव सविकल्प ही के द्वारकरि निर्विकल्प परिणाम होने का विधान कहिए है सो सम्यक्ती कदाचित स्वरूप ध्यान करने को उद्यमी होय है तहा प्रथम भेद विज्ञान स्वपर स्वरुप का करै, नौकर्म, द्रव्यकर्म, भावकर्म रहित चैतन्य चित चमत्कार मात्र अपना स्वरुप जाने, पीछे परका भी विचार छूट जाय, केवल स्वात्मविचार ही रहे है । तहां अनेक प्रकार निजस्वरुप विषै अहवुद्धि धार है । मे चिदानन्द हू, शुद्ध हू, सिद्ध हूँ इत्यादि विचार होत सते सहज ही आनन्द तरंग उठे हैरोमाच होय है ता पीछे ऐसा विचार तो छूट जाय, केवल चिन्मात्र स्वरुप भासने लागे । तहा सर्व परिणाम उस रूप विषै एकाग्र होय प्रवर्ते । दर्शन ज्ञानादिकका वा नय प्रमाणादिकका भी विचार विलय जाय । चैतन्य स्वरुप जो सविकल्प ताकरि निश्चय किया था तिस ही विषै व्याप्य व्यापक रूप होय ऐसे प्रवर्ते । जहा ध्याता ध्यायपनो दूर भयो सो ऐसी दशा का नाम निर्विकल्प अनुभव है । सो वडे नयचक्र विषै ऐसा ही कहा है। गाथा ताच्चारों सरग काले समय बुज्झहि जुत्ति मग्गेरणा । गो राइख समये पञ्चक्खो अरण हवो जम्हा ॥ अर्थ -- तत्वका अवलोकन का जो काल ता विषै समय जो है शुद्धात्मा ताको जुत्ता जो नय प्रमाण ताकरि पहलै जाने । पीछे आराधना समय जो अनुभव काल, तिहि विषै नय प्रमाण नाही है । जाते प्रत्यक्ष अनुभव है । जैसे रत्न को खरीद विषे अनेक विकल्प करें हैं, प्रत्यक्ष वाको पहरिये तब विकल्प नाही, पहिरने का सुख ही है । ऐसे सविकल्प के द्वारे निर्विकल्प अनुभव होय है । बहुरि निर्विकल्प अनुभव विषै जो ज्ञानपञ्चेन्द्री, छट्टा मनके द्वारे प्रवर्ते था सो ज्ञान सब तरफ सो सिमटकर केवल स्वरुप सन्मुख भया । जातै वह ज्ञान क्षयोपशाम रूप हे सो एक काल विर्षे एक ज्ञेयही को जाने, सो ज्ञान स्वरुप जानने को प्रवर्त्या, तव अन्य का जानना सहज ही रह गया तहां ऐसा दशा भई जो ब्राह्म विकार होय तो भी स्वरुप ध्यानीको कछ खवर नाही, ऐसे मतिज्ञान भी स्वरुप सन्मुख भया । वहुरि नयादि के विचार मिटते मुलतान दिगम्बर जैन समाज - इतिहास के आलोक ने [ 27
SR No.010423
Book TitleMultan Digambar Jain Samaj Itihas ke Alok me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherMultan Digambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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