SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 803
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय ६ सूत्र ३२-३३-३४ ७२३ वेदनायाश्च ॥ ३२॥ अर्थ-[ वेदनायाः च ] रोगजनित पीड़ा होनेपर उसे दूर करनेके लिये बारंबार चितवन करना सो वेदना जन्य प्रात्तध्यान है ॥३२॥ निदानं च ॥ ३३॥ अर्थ-[ निदानं च] भविष्यकाल संबंधी विषयोकी प्राप्तिमें चित्तको तल्लीन कर देना सो निदानज आर्तध्यान है ॥ ३३ ॥ अब गुणस्थानकी अपेक्षासे आध्यानके स्वामी वतलाते हैं तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ॥ ३४॥ अर्थ-[तत्] वह आर्तध्यान [अविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम्] अविरत-पहले चार गुणस्थान, देशविरत-पांचवाँ गुणस्थान और प्रमत संयत-छट्ठ गुणस्थानमें होता है। नोट-निदान नामका आर्तध्यान छट्ठ गुणस्थानमें नहीं होता। टीका मिथ्यावृष्टि जीव तो अविरत है और सम्यग्दृष्टि जीव भी अविरत होता है इसीलिये ( १ ) मिथ्यादृष्टि ( २ ) सम्यग्दृष्टि अविरति (३) देशविरत और ( ४ ) प्रमत्तसंयत इन चार प्रकारके जीवोंके आर्तध्यान होता है । मिथ्याष्टिके सबसे खराब प्रार्तध्यान होता है और उसके बाद प्रमत्तसंयत तक वह क्रमक्रम से मद होता जाता है। छठे गुणस्यान के बाद आर्तध्यान नहीं होता। मिथ्यादृष्टि जीव पर वस्तुके संयोग-वियोगको आतंव्यानका कारण मानता है, इसीलिये उसके यथार्थमे आर्तध्यान मंद भी नही होता। सम्यग्दृष्टि जीवोंके प्रार्तध्यान क्वचित् होता है और इसका कारण उनके पुरुषार्थकी कमजोरी है ऐसा जानते है, इसीलिये वे स्व का-पुरुषार्थ बढ़ा कर धीरे धीरे आर्तध्यानका अभाव करके अंतमे उसका सर्वथा नाश करते हैं । मिथ्यादृष्टि जीवके स्वीय ज्ञानस्वभावकी अरुचि है इसीलिये उसके सर्वत्र, निरतर दुःखमय आर्तध्यान वर्तता है; सम्यग्दृष्टि जीवके स्व
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy