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________________ अध्याय ६ सूत्र १८ ७०५ जो कोई मुनि एकेन्द्रियादि प्राणियोंके समूहको दुःख देनेके कारणरूप जो संपूर्ण पापभाव सहित व्यापार है, उससे अलग हो मन, वचन और शरीरके शुभ अशुभ सर्व व्यापारोंको त्यागकर तीन गुप्तिरूप रहते है तथा जितेन्द्रिय रहते हैं ऐसे संयमीके वास्तवमे सामायिक व्रत होता है । ( गाथा १२५ ) जो समस्त त्रस स्थावर प्राणियों में समताभाव रखता है, माध्यस्थ भाव में आरूढ़ है, उसीके यथार्थ सामायिक होती है । ( गाथा १२६ ) संयम पालते हुये, नियम करते तथा तप धारण करते हुये जिसके एक आत्मा ही निकटवर्ती रहा है उसीके यथार्थं सामायिक होती है । ( गाथा १२७ ) जिसे राग-द्वेष विकार प्रगट नहीं होते उसके यथार्थ सामायिक होती है । ( गाथा १२८ ) जो श्रार्त और रौद्र ध्यानको दूर करता है, उसके वास्तवमें सामायिक व्रत होता है । ( गाथा १२९ ) जो हमेशा पुण्य और पाप इन दोनों भावोंको छोड़ता है, उसके यथार्थं सामायिक होती है । ( गाथा १३० ) जो जीव सदा धर्मध्यान तथा शुक्लध्यानको ध्याता है उसके यथार्थ सामायिक होती है । ( गाथा १३३ ) सामायिक चारित्रको परम समाधि भी कहते हैं । ७. प्रश्न-- इस अध्यायके छट्ट सूत्रमें सवरके कारणरूपसे जो १० प्रकारका धर्मं कहा है उसमे सयम मा हो जाता है और संयम ही चारित्र है तथापि यहाँ फिरसे चारित्रको संवरके कारणरूपमे क्यों कहा ? उत्तर- - यद्यपि संयमधर्ममे चारित्र आ जाता है तथापि इस सूत्रमे चारित्रका कथन निरर्थक नही है । चारित्र मोक्ष प्राप्तिका साक्षात् कारण है यह बतलानेके लिये यहाँ अन्तमें चारित्रका कथन किया है । चीदहमें गुणस्थानके अन्तमें चारित्रको पूर्णता होनेपर ही मोक्ष होता है श्रतएव ८६
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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