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________________ २२० मोक्षशास्त्र ऐसी दशा अनादिकालसे है यह अ० १ सूत्र ४ में कथित तत्त्वोंका विचार करनेपर जीवको ज्ञानमें आता है । और उसे यह भी ज्ञान में आता है कि जीवका पुलकर्म तथा शरीरके साथ प्रवाहरूपसे अनादिकालीन सम्बन्ध है, अर्थात् जीव स्वयं वह का वही है किन्तु कर्म और शरीर पुराने जाते हैं तथा नये आते है । और यह संयोग सम्बन्ध अनादिकालसे चला आ रहा है। जीव इस संयोग सम्बन्धको एकरूप ( तादात्म्यसम्बन्धरूपसे ) मानता है और इसप्रकार जीव अज्ञानतासे शरीरको अपना मानता है इसलिये शरीर के साथ मात्र निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध होने पर भी उसके साथ कर्ता-कर्म सम्बन्ध मानता है; इसलिये वह यह मानता आ रहा है कि 'मैं शरीरके कार्य कर सकता हूँ और जड़ कर्म, शरीरादि मुझको कुछ करता है ।' तत्त्व विचार करते २ जीवको ऐसा लगता है कि यह मेरी भूल है मैं जीवतत्त्व है, और शरीर तथा जड़ कर्म, मुझसे सर्वथा भिन्न अजीवतत्त्व है मैं अजीवमे और अजीव मुझमें नही है, इसलिये में प्रजीवका कुछ नहीं कर सकता, मैं अपने ही भाव कर सकता हूँ, तथा अजीव अपने भाव ( उसीके भाव ) कर सकता है, मेरे नहीं । इसप्रकार जिज्ञासु आत्मा प्रथम रागमिश्रित विचारके द्वारा जीवअजीव तत्त्वोका स्वरूप जानकर, यह निश्चय करते है कि अपनेमें जो कुछ विकार होते है वे अपने ही दोष के कारण होते है । इतना जाननेपर उसे यह भी ज्ञात हो जाता है कि अविकारी भाव क्या है । इसप्रकार विकारभाव ( पुण्य पाप आश्रव बन्ध ) का तथा अविकारभाव ( संवर निर्जरा मोक्ष ) का स्वरूप वे जिज्ञासु आत्मा निश्चित् करते है । पहिले रागमिश्रित विचारोंके द्वारा इन तत्त्वोंका ज्ञान करके फिर जब जीव उन भेदोकी ओरका लक्ष दूर करके अपने त्रैकालिक पारिणामिकभावका ज्ञायकभावका यथार्थ आश्रय लेते है तब उन्हें श्रद्धागुरणका औपशमिकभाव प्रगट होता है । श्रद्धागुणके श्रपशमिकभावको उपशम सम्यग्दर्शन कहा जाता है । इस निश्चय सम्यग्दर्शनके प्रगट होने पर जीवके धर्मका प्रारम्भ होता है; तब जीवकी श्रनादिकालसे चली आनेवाली श्रद्धागुरणकी मिथ्या दशा दूर होकर
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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