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________________ अध्याय २ सूत्र १ २२१ सम्यक् दशा प्रगट होती है । यह औपशमिकभावसे मिथ्यात्वादिके संवर होते है । ५. औपशमिकभावकी महिमा इस प्रपशमिकभाव अर्थात् सम्यग्दर्शनकी ऐसी महिमा है कि जो जीव पुरुषार्थके द्वारा उसे एक बार प्रगट कर लेता है उसे अपनी पूर्ण पचित्र दशा प्रगट हुए बिना नही रह सकती । प्रथम- प्रोपशमिकभावके प्रगट होने पर अ० १ सूत्र ३२ में कथित 'उन्मत्तदशा' दूर हो जाती है अर्थात् जीवकी मिथ्याज्ञानदशा दूर होकर वह सम्यक्मति - श्रुतज्ञानरूप हो जाती है, और यदि उस जीवको पहिले मिथ्या अवधिज्ञान हो तो वह भी दूर होकर सम्यक् अवधिज्ञानरूप हो जाता है । सम्यग्दर्शनकी महिमा बतानेके लिये आचार्यदेवने अ० १ के पहिले सूत्रमें पहिला ही शब्द सम्यग्दर्शन कहा है, और प्रथम सम्यग्दर्शन औपशमिकभावसे ही होता है इसलिये औपशमिकभावकी महिमा बतानेके लिये यहाँ भी यह दूसरा अध्याय प्रारम्भ करते हुए वह भाव पहिले सूत्रके पहिले ही शब्दमे बताया है । ६. पाँच भावोंके सम्बन्धमें कुछ स्पष्टीकरण 4 (१) प्रश्न- प्रत्येक जीवमें अनादिकालसे पारिणामिकभाव है फिर भी उसे प्रपशमिकभाव अर्थात् सम्यग्दर्शन क्यों प्रगट नही हुआ ? उत्तर - जीवको अनादिकालसे अपने स्वरूपकी प्रतीति नहीं है और इसलिये वह यह नही जानता कि मैं स्वयं पारिणामिकभाव स्वरूप हैं, और वह अज्ञान दशामे यह मानता रहता है कि 'शरीर मेरा है और शरीर के अनुकूल, ज्ञात होनेवाली पर वस्तुएँ मुझे लाभकारी है तथा शरीरके प्रतिकूल, ज्ञात होनेवाली वस्तुएँ हानिकारी है' इसलिये उसका झुकाव पर वस्तुओ, शरीर, और विकारी भावोकी ओर बना ही रहता है । यहाँ जो किसीसे उत्पन्न नही किया गया है और कभी किसीसे जिसका विनाश नही होता ऐसे पारिणामिकभावका ज्ञान कराकर, अपने गुरण - पर्यायरूप भेदोको और परवस्तुओको गौरण करके प्राचार्यदेव उन परसे लक्ष छुड़वाते हैं ।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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