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________________ प्रथम अध्याय का परिशिष्ट [२] निश्चय सम्यग्दर्शन * निश्चय सम्यग्दर्शन क्या है और उसे किसका अवलम्बन है। वह सम्यग्दर्शन स्वयं आत्माके श्रद्धागुणकी निर्विकारी पर्याय है। अखण्ड आत्माके लक्षसे सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। सम्यग्दर्शनको किसी विकल्पका अवलम्बन नही है, किन्तु निर्विकल्प स्वभावके अवलम्बनसे सम्यग्दर्शन प्रगट होता है । यह सम्यग्दर्शन ही आत्माके सर्व सुखका मूल है । 'मैं ज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ वन्ध रहित हूँ' ऐसा विकल्प करना भी शुभ राग है, उस शुभ राग का अवलम्बन भी सम्यग्दर्शनको नही है, उस शुभ विकल्पका अतिक्रम करने पर सम्यग्दर्शन होता है । सम्यग्दर्शन स्वयं रागादि विकल्प रहित निर्मल पर्याय है । उसे किसी निमित्त या विकारका अवलम्बन नहीं है;-किन्तु पूर्ण रूप आत्माका अवलम्बन है-यह सम्पूर्ण आत्माको स्वीकार करता है। एक बार निर्विकल्प होकर अखण्ड ज्ञायक स्वभावको लक्षमें लिया कि वहाँ सम्यक्प्रतीति हो जाती है । अखण्ड स्वभावका लक्ष ही स्वरूपकी शुद्धिके लिये कार्यकारी है । अखण्ड सत्य स्वरूपको जाने बिना श्रद्धा किये विना, 'मैं ज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ अबद्धस्पृष्ट हूँ' इत्यादि विकल्प भी स्वरूप की शुद्धिके लिए कार्यकारी नही हैं। एक बार अखण्ड ज्ञायक स्वभावका संवेदन-लक्ष किया कि फिर जो वृत्ति उठती है वे शुभाशुभ वृत्तियाँ अस्थिरताका कार्य करती है, किन्तु वे स्वरूपके रोकनेमे समर्थ नही हैं, क्योकि श्रद्धा तो नित्य विकल्प रहित होनेसे जो वृत्ति उद्भूत होती है वह श्रद्धाको नही बदल सकती ... यदि विकल्पमे ही रुक गया तो वह मिथ्यावृष्टि है । विकल्प रहित होकर अभेदका अनुभव करना ही सम्यग्दर्शन है। इस संबंधमे समयसारमे कहा है किः
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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