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________________ मोक्षशास्त्र कम्मं वद्धमबद्धं जीवे एवं तु जाण णयपक्खं । पक्खा तिक्कंतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो || १४२ || 'आत्मा कर्मसे बद्ध है या अबद्ध' ऐसे दो प्रकारके भेदोंके विचार में रुकना सो नयका पक्ष है । 'मैं आत्मा हूँ परसे भिन्न हूँ' ऐसा विकल्प भी राग है इस रागकी वृत्तिको, -नयके पक्षको उल्लंघन करे तो सम्यग्दर्शन प्रगट हो । 'मैं वद्ध हूँ अथवा बन्ध रहित मुक्त हूँ' ऐसी विचार श्रेणीको लांघकर जो आत्मानुभव करता है वही सम्यग्दृष्टि है और वही शुद्धात्मा है । ----- १५८ 'मैं अवन्ध हूँ, बन्ध मेरा स्वरूप नहीं है' ऐसे भंगको विचार श्रेणी के कार्य में रुकना सो अज्ञान है । और उस भंगके विचारको लांघकर अभंगस्वरूपको स्पर्श कर लेना ( अनुभव कर लेना ) ही पहला आत्म-धर्म अर्थात् सम्यग्दर्शन है । 'मैं पराश्रय रहित, अबन्ध, शुद्ध हूँ' नियनयके पक्षका विकल्प राग है, श्रौर जो उस रागमें अटक जाता है (-रागको ही सम्यग्दर्शन मानले और राग रहित स्वरूपका अनुभव न करे ) सो वह मिथ्यादृष्टि है । के विकल्प उठते तो हैं किन्तु उनसे सम्यग्दर्शन नहीं होता अनादिकालसे आत्मस्वरूपका अनुभव नही है परिचय नही है, इसलिये श्रात्मानुभव करते समय तत्सम्बन्धी विकल्प आये विना नही रहते । अनादिकालसे आत्मस्वरूपका अनुभव नहीं है इसलिये वृत्तियों का उद्भव होता है कि मैं श्रात्मा कर्मोके साथ संबंधवाला हूँ या कर्मोके संघसे रहित हैं इसप्रकार नयोंके दो विकल्प उठते हैं; परन्तु - 'कर्मो के साथ संबंधवाला या कर्मोके संबंधसे रहित अर्थात् वद्ध हूँ या अबद्ध हूँ' ऐसे दो प्रकारके भेदोंका भी एक स्वरूपमें कहाँ अवकाश है ? स्वरूप तो नयपक्षको अपेक्षाओ से परे है । एक प्रकार के स्वरूपमें दो प्रकारको अपेक्षाएँ नहीं होती । में शुभाशुभभावसे रहित हैं ऐमे विचार में उलझना मी पक्ष है। उससे भी परे स्वरूप है, और स्वरूप तो पक्षातिक्रांत है यही विषय है, अर्थात् उसीके लासे सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, पतिरिक्त दूसरा कोई सम्यग्दर्शनका उपाय नहीं है ।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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