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________________ अध्याय १ सूत्र ३० १०१ होता है; किन्तु यहाँ जो चार ज्ञान एक ही साथ कहे हैं सो चारका विकास एक ही समय होनेसे चार ज्ञानोकी जाननेरूप लब्धि एक कालमे होती है,यही कहने का तात्पर्य है । उपयोग तो एक कालमें एक ही स्वरूप होता है ॥ ३० ॥ -- सूत्र ९ से ३० तक का सिद्धान्त आत्मा वास्तव में परमार्थ है और वह ज्ञान है; आत्मा स्वयं एक ही पदार्थ है इसलिये ज्ञान भी एक ही पद है । जो यह ज्ञान नामक एक पद है सो यह परमार्थस्वरूप साक्षात् मोक्ष उपाय है । इन सूत्रोंमे ज्ञानके जो भेद कहे हैं वे इस एक पदको अभिनन्दन करते है । ज्ञानके हीनाधिकरूप भेद उसके सामान्य ज्ञान स्वभावको नही भेदते, किन्तु अभिनन्दन करते हैं, इसलिये जिसमे समस्त भेदोका अभाव है ऐसे आत्मस्वभावभूत ज्ञानका ही एकका श्रालम्बन करना चाहिए, अर्थात् ज्ञानस्वरूप श्रात्माका ही अवलम्बन करना चाहिये, ज्ञानस्वरूप आत्माके अवलम्बनसे ही निम्न प्रकार प्राप्ति होती है: १ - निजपदकी प्राप्ति होती है । २- भ्रान्तिका नाश होता है । ३- आत्माका लाभ होता है । ४ - अनात्माका परिहार सिद्ध होता है । ५- भावकर्म बलवान नही हो सकता । ६ - राग-द्वेष मोह उत्पन्न नही होते । ७- पुनः कर्मका प्राश्रव नही होता । ८ - पुनः कर्म नहीं बँधता | ६- पूर्वबद्ध कर्म भोगा जानेपर निर्जरित हो जाता है । १० - समस्त कर्मोका प्रभाव होनेसे साक्षात् मोक्ष होता है । ज्ञान स्वरूप आत्मा आलम्बनकी ऐसी महिमा है । क्षयोपशमके अनुसार ज्ञानमें जो भेद होते है वे कही ज्ञान सामान्य को अज्ञानरूप नही करते, प्रत्युत ज्ञानको प्रगट करते हैं इसलिये इन सब भेदों परका लक्ष्य गौरग करके ज्ञान सामान्यका अवलम्बन करना चाहिये । नवमे सूत्रके अन्तमे एक वचन सूचक 'ज्ञानम्' शब्द कहा है, वह भेदोंका स्वरूप जानकर, भेदो परका लक्ष्य छोड़कर, शुद्धनयके विषयभूत अभेद, अखण्ड ज्ञानस्वरूप आत्माकी ओर अपना लक्ष्य करनेके लिये कहा है, ऐसा समझना चाहिए [ देखो पाटनी ग्रथमालाका श्री समयसार - गाथा २०४, पृष्ठ ३१० ]
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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