SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०२ मोक्षशास्त्र मति श्रुत और अवधिज्ञानमें मिथ्यात्व मतिश्रुतावधयो विपर्ययाश्च ॥ ३१ ॥ अर्थ:- [ मतिश्रुतावधयः ] मति, श्रुत और अवधि यह तीन ज्ञान [ विपर्ययाच ] विपर्यय भी होते हैं । टीका (१) उपरोक्त पाँचों ज्ञान सम्यग्ज्ञान हैं, किन्तु मति श्रुत श्रीर अवधि यह तीनों ज्ञान मिथ्याज्ञान भी होते हैं । उस मिथ्याज्ञानको कुमतिज्ञान कुश्रुतज्ञान तथा कुअवधि ( विभंगावधि ) ज्ञान कहते हैं । अभीतक सम्यग्ज्ञानका अधिकार चला श्रा रहा है, अब इस सूत्र मे 'च' शब्दसे यह सूचित किया है कि यह तीन ज्ञान सम्यक् भी होते है और मिथ्या भी होते है । सूत्रमे विपर्ययः शब्द प्रयुक्त हुआ है, उसमे संशय और और अनध्यवसाय गर्भितरूपसे आ जाते है । मति और श्रुतज्ञानमे संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय यह तीन दोष है, अवधिज्ञानमें संशय नही होता, किन्तु अनध्यवसाय अथवा विपर्यय यह दो दोष होते हैं, इसलिये उसे कुअवधि अथवा विभंग कहते है । विपर्यय सम्बन्धी विशेष वर्णन ३२ वें सूत्रकी टीकामें दिया गया है । (२) अनादि मिथ्यादृष्टि के कुमति और कुश्रुत होते है । तथा उसके देव और नारकीके भवमें कुप्रवधि भी होता है । जहाँ जहाँ मिथ्यादर्शन होता है वहाँ वहाँ मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र अविनाभावी रूपसे होता है ॥ ३१ ॥ प्रश्न - जैसे सम्यग्दृष्टि जीव नेत्रादि इन्द्रियोंसे रूपादिको सुमतिसे जानता है उसीप्रकार मिथ्यादृष्टि भी कुमतिज्ञानसे उन्हे जानता है, तथा जैसे सम्यग्दृष्टि जीव श्रुतज्ञानसे उन्हे जानता है तथा कथन करता है, उसी प्रकार मिध्यादृष्टि भी कुश्रुतज्ञानसे जानता है और कथन करता है, तथा जैसे सम्यग्दृष्टि अवधिज्ञानसे रूपी वस्तुओं को जानता है उसीप्रकार मिथ्यादृष्टि कुअवधिज्ञान से जानता है,' , तब फिर मिथ्यादृष्टिके ज्ञानको मिथ्याज्ञान क्यों कहते हो ?
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy