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________________ १०० मोक्षशास्त्र २९ वे सूत्रका सिद्धान्त 'मैं परको जानू तो बड़ा कहलाऊं' ऐसा नहीं किन्तु मेरी अपार सामर्थ्य अनन्त ज्ञान-ऐश्वर्यरूप है इसलिये मैं पूर्णज्ञानधन स्वाधीन आत्मा हूँ, इसप्रकार पूर्ण साध्यको प्रत्येक जीवको निश्चित् करना चाहिये। इसप्रकार निश्चित् करके स्वसे एकत्व और परसे विभक्त ( भिन्न ) अपने एकाकार स्वरूपकी ओर उन्मुख होना चाहिये। अपने एकाकार स्वरूपकी ओर उन्मुख होने पर सम्यग्दर्शन प्रगट होता है और जीव क्रमशः आगे वढ़ता है और थोडे समयमे उसकी पूर्ण ज्ञान दशा प्रगट हो जाती है ॥२६॥ एक जीवके एक साथ कितने ज्ञान हो सकते हैं ? एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्व्यः ॥३०॥ अर्थ:---[ एकस्मिन् ] एक जीवमें [ युगपत् ] एक साथ [ एकादीनि ] एकसे लेकर [ प्राचतुर्यः ] चार ज्ञान तक [ भाज्यानि ] विभक्त करने योग्य हैं अर्थात् हो सकते हैं। टीका (१) एक जीवके एक साथ एकसे लेकर चार ज्ञान तक हो सकते हैं ? यदि एक ज्ञान हो तो केवलज्ञान होता है, दो हो तो मति और श्रुत होते है, तीन हो तो मति श्रुत और अवधि अथवा मति श्रुत और मनापर्ययज्ञान होते हैं, चार हो तो मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्ययज्ञान होते हैं। एक ही साथ पांच ज्ञान किसीके नही होते । और एक ही ज्ञान एक समयमें उपयोगस्प होता है, केवलज्ञानके प्रगट होने पर वह सदाके लिये बना रहता है। दूसरे ज्ञानोंका उपयोग अधिकसे अधिक अंतमुहर्त होता है, उससे अधिक नहीं होता, उसके बाद ज्ञानके उपयोगका विषय यदल हो जाता है । केवलीके अतिरिक्त सभी संसारी जीवोंके कमसे कम दो अर्थात् मति और श्रुतज्ञान अवश्य होते हैं। (२) धायोपशमिक शान क्रमवर्ती है एक कालमें एक ही प्रवर्तित
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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