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________________ १४६ मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन है; इस विशेषपर्यायमे यदि स्वरूपकी रुचि हो तो समय-समयपर विशेषमे शुद्धता आती जाती है । यदि उस विशेष पर्यायमे ऐसी विपरीत रुचि हो कि 'जो रागादि तथा देहादि हैं. वह मैं हूँ तो विशेषमे अशुद्धता होती है। स्वरूपमे रुचि होनेपर शुद्ध पर्याय क्रमबद्ध और विपरीत होनेपर अशुद्ध पर्याय क्रमवद्ध प्रकट होती हैं। चैतन्यकी क्रमवद्ध पर्यायोमे अन्तर नही पडता, किन्तु जीव जिवर रुचि करता है, उस ओरकी क्रमवद्ध दशा प्रकट होती है। णमोकार मन्त्र आत्माकी ओर रुचि करता है तथा रागादि और देहादिसे रुचिको दूर करता है, मत. आत्माको शुद्ध क्रमबद्ध दशाओको प्रकट करनेमें प्रधान कारण यही कहा जा सकता है। यह आत्माको ओर वह पुरुषार्थ है जो क्रमबद्ध चेतन्य पर्यायोको उत्पन्न करने में समर्थ है । अतएव द्रव्यानुयोगकी अपेक्षा णमोकार मन्त्रकी धनु. भूति विपरीत मान्यता और अनन्तानुबन्धी कषायका नाश कर विशुद्ध चैतन्य पर्यायोंकी भोर जीवनको प्रेरित करती है। आत्माकी शुद्धिके लिए इस महामन्त्र का उच्चारण, मनन और ध्यान करना आवश्यक है। यो तो गणितशास्त्रका उपयोग लोक व्यवहार चलानेके लिए होता है, पर आध्यात्मिक क्षेत्रमे भी इस शास्त्रका व्यवहार प्राचीनकालसे होता चला आ रहा है । मनको स्थिर करनेके लिए 'गणित एक प्रधान साधन है। गणितकी पेचीदी न गुत्थियोमे उलझकर मन स्थिर हो जाता है तथा एक निश्चित केन्द्रविन्दुपर आश्रित होकर आत्मिक विकासमे सहायक होता है। णमोकार मन्त्र, षट्खण्डागमका गणित, गोम्मटसार और त्रिलोकसारके गणित मनकी सासारिक प्रवृत्तियोको रोकते हैं और उसे कल्याणके पथपर भग्रसर करते हैं। वास्तवमे गणित विज्ञान भी इसी प्रकारका है जिसे एक बार इसमे रस मिल जाता है, वह फिर इस विज्ञानको जीवन-भर छोड नहीं सकता है । जैनाचार्योंने धार्मिक गणितका विधान कर मनको स्थिर करनेका सुन्दर और व्यवस्थित मार्ग बतलाया है। क्योंकि निकम्मा मन
SR No.010421
Book TitleMangal Mantra Namokar Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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