SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मंगलमन्त्र णमोकार • एक अनुचिन्तन १४५ है । सम्यग्दृष्टि से रामोकार महामन्त्रकी अनुभूति हो ही जाती है, अतः सभी सांसारिक अभिलाषाओका अभाव हो जाता है । पंचाध्यायीकारने सवेग गुणका वर्णन करते हुए कहा है त्यागः सर्वामिलापस्य निर्वेदो लक्षणात्तथा । स संवेगोऽथवा धर्मः साभिलाषो न धर्मवान् ॥ ४४३ ॥ नित्यं रागी कुदृष्टि. स्यान्न स्यात् क्वचिदरागवान् । अस्तरागोऽस्ति सद्द्दष्टिर्नित्यं वा स्यान्न रागवान् ॥ ४४५ ॥ -प० अ० २ अर्थ- सम्पूर्ण अभिलाषाओका त्याग करना अथवा वैराग्य धारण करना सवेग है और उसीका नाम धर्म है । क्योकि जिसके अभिलाषा पायी जाती है, वह धर्मात्मा कभी नहीं हो सकता । मिथ्यादृष्टि पुरुष सदा रागी भी है, वह कभी भी रागरहित नही होता । पर णमोकार मन्त्रको आराधना करनेवाले सम्यग्टष्टिका राग नष्ट हो जाता है । अत वह रागी नहीं, अपितु विरागी है । सवेग गुण आत्माको आसक्तिसे हटाता है और स्वरूपमे लीन करता है । णमोकार मन्त्रकी अनुभूति होनेसे तीसरा मास्तिक्य गुण प्रकट होता है । इस गुणके प्रकट होते ही 'सत्त्वेपु मैत्री' की भावना आ जाती है । समस्त प्राणियोंके ऊपर दयाभाव होने लगता है । 'सर्वभूतेषु समता' के आ जानेपर इस गुण का धारक जीव अपने हृदय मे चुभनेवाले माया, मिथ्यात्व और निदान शल्यको भी दूर कर देता है तथा स्व पर अनुकम्पाका पालन करने लगता है। चौथे आस्तिक्य गुणके प्रकट होनेसे द्रव्य, गुण, पर्याय आदिमे यथार्थ निश्चय बुद्धि उत्पन्न हो जाती है तथा निश्चय और व्यवहार के द्वारा सभी द्रव्योकी वास्तविकनाका हृदयगम भी होने लगता है। द्वादशागवाणीका सार यह णमोकार मन्त्र सम्यक्त्वके उक्त चारो गुरोको उत्पन्न करता है । आत्माको सामान्य विशेष स्वरूप माना गया है । ज्ञानकी अपेक्षा आत्मा सामान्य है और उम ज्ञानमें समय-समयपर जो पर्यायें होती है, वह विशेष है । सामान्य स्वयं प्रोव्यरूप रहकर विशेष रूपमे परिणमन करता १० 4
SR No.010421
Book TitleMangal Mantra Namokar Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy