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________________ मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन १४७ प्रमाद करता है, जबतक यह किसी दायित्वपूर्ण कार्यमे लगा रहता है, तबतक इसे व्यर्थकी अनावश्यक एव न करने योग्य बातोके सोचनेका अवसर ही नही मिलता है पर जहां इसे दायित्वसे छुटकारा मिला - स्वच्छन्द हुआ कि यह उन विषयोको सोचेगा, जिनका स्मरण भी कभी कार्य करते समय नही होता था। मनकी गति बडी विचित्र है। एक ध्येयमे केन्द्रित कर देनेपर यह स्थिर हो जाता है। नया साधक जव व्यानका अभ्यास आरम्भ करता है, तब उसके सामने सबसे बडी कठिनाई यह आती है कि अन्य समय जिन सडी-गली, गन्दी एव घिनौनी बातोकी उसने कभी कल्पना नही की थी, वे ही उसे याद आती हैं और वह घबडा जाता है। इसका प्रधान कारण यही है कि जिसका वह ध्यान करना चाहता है, उसमे मन अभ्यस्त नहीं है और जिनमे मन अभ्यस्त है, उनसे उसे हटा दिया गया है, अतः इस प्रकारकी परिस्थितिमे मन निकम्मा हो जाता है। किन्तु मनको निकम्मा रहना आता नही, जिससे वह उन पुराने चित्रोको उधेडने लगता है, जिनका प्रथम संस्कार उसके ऊपर पडा है। वह पुरानी बातोंके विचारमे सलग्न हो जाता है। आचार्यने धार्मिक गणितकी गुत्थियोको सुलझानेके मार्ग-द्वारा मनको स्थिर करनेकी प्रक्रिया बतलायी है क्योकि नये विषयमे लगनेसे मन ऊवता है, घबडाता है, रुकता है और कभी-कभी विरोध भी करने लगता है। जिस प्रकार पशु किसी नवीन स्थानपर नये खूटेसे वांधनेपर विद्रोह करता है, चाहे नयी जगह उसके लिए कितनी ही सुखप्रद क्यो न हो, फिर भी अवसर पाते ही रस्सी तोडकर अपने पुराने स्थानपर भाग जाना चाहता है। इसी प्रकार मन भी नये विचारमे लगना नही चाहता। कारण स्पष्ट है, क्योकि विषयचिन्तनका अभ्यस्त मन आत्मचिन्तनमें लगनेसे घबडाता है। यह वडा ही दुनिग्रह और चचल है। धार्मिक गणितके सतत अभ्याससे यह आत्मचिन्तनमें लगता है और व्यर्यकी अनावश्यक वातें विचार-क्षेत्रमे प्रविष्ट नहीं हो पाती।
SR No.010421
Book TitleMangal Mantra Namokar Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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