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________________ १४२ मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन एवं पुपक गुणोंका निश्चय होता है। स्वानुभूतिकी इसके साथ अन्वय और ययेतिरेक दोन प्रकारकी व्याप्तियां वर्तमान हैं । तात्पर्य यह है कि णमोकार मन्त्रसे स्वानुभूति होती है, अतः णमोकार मन्त्रकी उपयोगा वस्थामे स्वानुभवके साथ विषमा व्याप्ति और लब्धि रूप णमोकार मन्त्रके साथ स्वानुभवकी समा व्याप्ति होती है। इस महामन्त्र से जीवादि तत्त्वोके विषयमे श्रद्धा, रुचि, प्रतीति और आचरण उत्पन्न होते हैं। तत्त्वार्थके जानने के लिए उद्यत बुद्धिका होना श्रद्धा, तत्त्वार्थमे आत्मिकभावका होना रुचि, तत्त्वार्थको ज्योंका त्यों स्वीकार करना प्रतीति एव तत्त्वार्थके अनुकूल क्रिया करना आचरण है । श्रद्धा, रुचि, प्रतीति ये तीनो णमोकारके द्रव्याश और गुणाश हैं । अथवा यो समझना चाहिए कि ये तीनो ज्ञानात्मक हैं, णमोकारमन्त्र श्रुतज्ञान रूप है, अत ये तीनो ज्ञानकी पर्याय होनेसे णमोकार मन्त्रको भी पर्याय हैं । स्वानुभूतिके साय णमोकार मन्त्रको आराधना करनेसे सम्यग्दर्शन तो उत्पन्न ही होता है, पर विवेक और आचरण भी प्राप्त हो जाते हैं । ____इस महामन्त्रको अनुभूति आत्मामे हो जानेपर प्रशम, सवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य गुणोका प्रादुर्भाव हो जाता है तथा आत्मानुभूति हो जानेसे बाह्य विपयोसे अरुचि भी हो जाती है। प्रथम गुणके उत्पन्न होनेसे पंचेन्द्रियसम्बन्धी विषयोमे और असख्यात लोकप्रमाण क्रोधादि भावोंमे स्वभावसे ही मनकी प्रवृत्ति नहीं होती है । क्योकि अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभका उदय उसके नही होता है तथा अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कपायोका मन्दोदय हो जाता है । सवेग गुणकी उत्पत्ति होनेसे आत्माका धर्म और धर्मके फलमे पूरा उत्साह रहता है तथा साधर्मी भाइयोसे वात्सल्यभाव रहने लगता है। समस्त प्रकारकी अभिलापाएँ भी इस गुणके प्रादुर्भूत होनेसे दूर हो जाती हैं, क्योकि सभी अभिलापाएं मिथ्यात्व कर्मके उदयसे उत्पन्न होती हैं । णमोकार मन्त्रको अनुभूति न होना या इस महामन्त्रके प्रति हार्दिक श्रद्धा भावनाका न होना मिथ्यात्व
SR No.010421
Book TitleMangal Mantra Namokar Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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