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________________ मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन ११७ ध्यानमें अमूर्तिक अवलम्बन माना है तथा यह अमूर्तिक अवलम्बन णमोकार मन्त्र के पदोक्त गुणोका होता है। हरिभद्रसूरिने अपने योगविन्दु ग्रन्यमें "अक्षरद्वयमेतत् श्रयमाणं विधानत" इस श्लोककी स्वोपज्ञटोकामें योगशास्त्रका सार णमोकार मन्त्रको बताया है। इस महामन्त्रकी माराधनासे समता भावकी प्राप्ति होती है तथा आत्मसिद्धि भी इसी मन्त्रके ध्यानसे आती है। अधिक क्या, इस मन्त्र के अक्षर स्वयं योग है। इसको प्रत्येक मात्रा, प्रत्येक पद, प्रत्येक वर्ण अमितशक्तिसम्पन्न है। वह लिखते है"अक्षरद्वयमपि किं पुनः पञ्चनमस्कारादीन्यनेकान्यक्षराणीत्यपि शब्दार्थ. । एतत् 'योग.' इति शब्दलक्षणं श्रूयमाणमाकय॑मानम् । तथाविधार्थानवबोधेऽपि 'विधानतो' विधानेन श्रद्धासंवेगादिशुद्धभावोल्लासकरकुदमलयोजनादिलक्षणेन, गीतयुक्त पापक्षयाय मिथ्यात्वमोहाचकुशलकर्मनिर्मूलनायोच्चैरित्यर्थम्" । अर्थात् ध्यान करनेके लिए ध्येय णमोकार मन्त्र के अक्षर, पद एव ध्वनियां हैं । इन्हीको योग भी कहा जाता है, यदि इन शब्दोको सुनकर भी अर्थका बोव न हो तो भी श्रद्धा, संवेग और शुद्ध भावोल्लासपूर्वक हाथ जोडकर इस मन्त्रका जाप करनेसे मिथ्यात्व मोह आदि अशुभ कर्मों का नाश होता है। इससे स्पष्ट है कि हरिभद्रसूरिने पंचपरमेष्ठी वाचक णमोकार मन्त्रके अक्षरोको 'योग' कहा है । अतएव णमोकारमन्त्र स्वय योगशास्त्र है, योगशास्त्रके सभी ग्रन्योका प्रणयन इस महामन्त्रको हृदयंगम करने तथा इसके ध्यान द्वारा आत्माको पवित्र करने के लिए हुआ है। 'योग' शब्दका अर्थ जो सयोग किया जाता है, उस दृष्टिसे णमोकार मन्त्रके अक्षरोका सयोग-शुद्धात्माका चिन्तन कर अर्थात् शुद्धात्मामोसे अपना सम्बन्ध जोडकर अपनी आत्माको शुद्ध वनाना है। 'धर्मव्यापार' को जब योग कहा जाता है, उस समय णमोकार मन्त्रोक्त शुद्धात्माके व्यापार-प्रयोग ध्यान, चिन्तन-द्वारा अपनो आत्माको शुद्ध करना अभिप्रेत है। अतएव णमोकार मन्त्र और योगका प्रतिपाद्य-प्रतिपादकभाव सम्बन्व है; क्योंकि आचार्योंने अभेद विवक्षासे णमोकारमन्त्रको योग कहा
SR No.010421
Book TitleMangal Mantra Namokar Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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