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________________ महावीर वर्धमान धर्म बनाने के लिये पूर्ण प्रयत्न किया जिस के फलस्वरूप उस समय मे प्रचलित इन्द्र, स्कन्द, नाग, भूत, यक्ष आदि देवताओ की पूजा भी जैनधर्म मे शामिल हो गई, और जैन उपासक-उपासिकाये लौकिक देवी-देवताओं की अर्चनाकर अपने को धन्य समझने लगे। जैन ग्रंथो में आचार्य कालक की एक दूसरी कथा आती है-एक बार कालक आचार्य पइट्ठान (पैठन) नगर मे पहुँचे और उन्हों ने भाद्रपद सुदी पंचमी के दिन पर्दूषण मनाये जाने की घोषणा की। परन्तु इस दिन इन्द्रमह का उत्सव मनाया जानेवाला था, अतएव कालकाचार्य ने सब के कहने पर पर्दूषण की तिथि बदलकर पचमी से चतुर्थी कर दी। इस ऐतिहासिक घटना से मालूम होता है कि लोकधर्म को साथ लेकर आगे बढ़ने की भावना जैन श्रमणो मे कितनी अधिक थी ! मथुरा के जैन स्तूपों मे जो नाग, यक्ष, गधर्व, वृक्षचैत्य, किन्नर आदि के खुदे हुए चित्र उपलब्ध हुए है उस से पता लगता है कि जैन कला मे भी लोकधर्म का प्रवेश हुआ था। इसी प्रकार विद्या-मत्र आदि के प्रयोगो का जैन श्रमणो के लिये निषेध होने पर भी वे लोकधर्म निबाहने के लिये इन का सर्वथा त्याग नहीं कर सके । जैन ग्रथों मे भद्रबाहू, कालक, खपुट, पादलिप्त, वज्रस्वामी, पूज्यपाद आदि अनेक आचार्यों का उल्लेख पाता है जो विद्या-मत्र आदि मे कुशल थे और जिन्हों ने अवसर आने पर विद्या आदि के प्रयोगो द्वारा जैनसघ की रक्षा की थी। जैन शास्त्रों मे अनेक विद्याधर और विद्याधरियों का कथन आता है जो जैनधर्म के परम उपासक थे । इस के अतिरिक्त उस जमाने मे जो बलिकर्म (कौओं आदि को अपने भोजन मे से नित्यप्रति कुछ दान करना), कौतुक, मगल, प्रायश्चित्त आदि के लौकिक रिवाज प्रचलित थे, उन को भी जैन "निशीथ चूणि (१६, पृ० ११७४) में इन्द्र, स्कन्द, यक्ष और भूतमह ये चार महान् उत्सव बताये गये है "वही, १०, पृ० ६३२ इत्यादि
SR No.010418
Book TitleMahavira Vardhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherVishvavani Karyalaya Ilahabad
Publication Year
Total Pages75
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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