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________________ जैनधर्म -- लोकधर्म ५३ ९७ उपासकों ने अपनाया था। मृतक की अन्त्येष्टि क्रिया करते समय कहा गया है कि जैन साधु को सर्वप्रथम नैऋत दिशा पसंद करनी चाहिये, और तृण बिछाकर केशर का पुतला बनाना चाहिये; शुभ नक्षत्र में मृतक को निकालना चाहिये ; " विहार करते समय साधु को तिथि, करण, नक्षत्र आदि का विचार करके यात्रा प्रारंभ करनी चाहिये, इस प्रकार की लौकिक विधि न पालने से जैन श्रमणों को उपहास - पात्र होना पड़ता था ।" जैन गृहस्थ भी यात्रा आदि शुभ कार्यों के प्रारंभ में तिथि, नक्षत्र आदि का ध्यान रखते थे, गृहदेवता की पूजा (बलि) करते थे, धूप आदि जलाते थे और समुद्र-वायु की पूजा करते थे । इस यही मालूम होता है कि जैन श्रमणों ने लोकधर्म को अपनाकर उस से अपने अहिंसा, तप, त्याग आदि के सिद्धातों का समावेशकर जैनधर्म को आगे बढ़ाया । बौद्ध भिक्षु भी विघ्न, रोग आदि का नाश करने के लिये तथा सर्प - विष निवारण के लिये परित्राण - देशना आदि का पाठ करते थे और मगलसूत्र पढ़ते थे ।"" वास्तव में देखा जाय तो महावीर और बुद्धकाल मे साम्प्रदायिकता का जोर नही था, यही कारण है कि जब बुद्ध, महावीर या अन्य कोई साधु-सत किमी नगरी मे पधारते थे तो नगरी के सब लोग उन के दर्शन के लिये जाते थे और उन का धर्म श्रवणकर अपने को कृतकृत्य मानते थे । परन्तु समय बीतने पर ज्यों ज्यों जैनधर्म में निर्बलता आती गई, उन ९६ ९७ 'बृहत्कल्प भाष्य ४.५५०५-२७; भगवती आराधना १९७०-८८ पृ० ४० श्र 'व्यवहार भाष्य १, १२५ इत्यादि, सोमदेव ने यशस्तिलक (२, पृ० ३७३ ) में कहा है- ०८ ९९ यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषणम् । सर्वमेव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । नायाधम्मका ८, पृ० ७-८ १०० मिलिन्दप्रश्न, हिन्दी अनुवाद, पृ० १८६ तथा परिशिष्ट
SR No.010418
Book TitleMahavira Vardhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherVishvavani Karyalaya Ilahabad
Publication Year
Total Pages75
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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