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________________ जैनधर्म -- लोकधर्म ५१ इस दृष्टांत से बहुत प्रसन्न हुआ और उसे राजगद्दी पर बैठा दिया । पता लगता है कि अहिसा में लोकहित की तीव्र भावना थी । १३ जैनधर्म - लोकधर्म पहले कहा जा चुका है कि महावीर का धर्म किसी व्यक्ति विशेष के लिये नही था, वह जनसाधारण के लिये था । जैन शास्त्रों में कहा है कि केवलज्ञान होने के पश्चात् तीर्थकर बनने के लिये जगत् को उपदेश देकर जगत् का कल्याण करना परमावश्यक है, अन्यथा तीर्थकर, तीर्थकर नही कहा जा सकता । श्रमणसंघ का तो काम ही यह था कि वे जनपदविहार करे, देश-देशांतर परिभ्रमण करे, और अपने आदर्श जीवन द्वारा, अपने सदुपदेशों द्वारा प्रजा का कल्याण करे । संस्कृत भाषा को त्यागकर लोकभाषा -- मागधी अथवा अर्धमागधी ( जो मगध - बिहार प्रान्त की भाषा थी ) में महावीर ने जो उपदेश दिया था उस का उद्देश्य यही था कि वे अपनी आवाज को बाल-वृद्ध, स्त्री तथा अनपढ़ लोगों तक पहुँचाना चाहते थे । उस युग में समाचार-पत्र, रेडियो आदि न होने पर भी महावीर और बुद्ध के उपदेश इतनी जल्दी लोकप्रिय हो गये थे, इस से मालूम होता है कि इन संत पुरुषों के सीधे-सादे वचनों ने जनता के हृदय पर अद्भुत प्रभाव डाला था । आगे चलकर भी जैन श्रमणों ने अपने धर्म को लोक ९२ व्यवहार भाष्य ४, पृ० ३८ 'तुलना करो -- ९३ बुझाहि भगवं लोगनाहा ! सयलजगज्जीवहियं पवतेहि धम्मतित्यं । हियसुयनिस्सेयसकरं सव्वलोए सव्वजीवाणं भविस्सइति ॥ ( कल्पसूत्र ५.१११ )
SR No.010418
Book TitleMahavira Vardhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherVishvavani Karyalaya Ilahabad
Publication Year
Total Pages75
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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