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________________ १५५ जै साधक इच्छावां पर विजय पाय लीवी, वै सचमुच मुक्त पुरुष है । से हु चक्खू मगुस्साणं जे कंखाए व अन्तऐ । सूत्र० १।१५।१४१ जिण साधक अभिलाषा-आसक्ति ने नष्ट कर दीवी वो मिनखां खातर मार्गदर्शक प्रांख रूप है ।। वोयरागभाव पडिवन्नै वियणं, जीवे सम सुहदुक्खे भवइ । उत्त० २६/३६ । वीतराग भाव नै प्राप्त करण आळो जीव सुख-दुख में समान रवे । अणिहे से पुढे अहियासए । सूत्र० २/१/१३ आतमविद् साधक नै निस्पृह भाव सू आवण आळा कष्ट सहन करणा चाइज । १०. आतमा जे एगं जाणइ, से सव्वं जागइ । जे सव्वं जागइ, से एग जाणइ ॥ प्राचा० १।४। जो एक नै जाणं वो सबन जाणं अर जो सबन जाणं वो एक न जाणे । अप्पा नई वेयरणी, अप्पा में कूडसामली । अप्पा काम दूहा घेणु, अप्पा मे नंदणं वणं ॥ .. उत्त० २०३६)
SR No.010416
Book TitleMahavira ri Olkhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Baccharaj Nahta
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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